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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान होता है। इस कारण जो पुञ्ज या अर्बुद बनता है उसका सार्वदैहिक रक्तपरिभ्रमण से कोई महत्त्व का सम्बन्ध नहीं रहता और इस कारण उसमें रक्त की मात्रा अत्यल्प होती है। इसी से उसके द्वारा होने वाला रक्तस्राव भी कोई बहुत महत्त्व का या गम्भीर स्वरूप का नहीं होता। ब्वायड का कथन है कि विकिरण के द्वारा इस संस्थान को अभिलुप्त किया जा सकता है क्योंकि विकिरण अभिलोपी धमनी अन्तश्छदपाक ( obliterative endarteritis) उत्पन्न कर देता है। इसमें अन्तश्छदीय कोशा काफी बड़े और फूले हुए होते हैं और कई स्तर गहरे होते हैं। अन्तश्छदीय कोशाओं का प्रगुणन कभी कभी तो इतना अधिक होता है कि वाहिनी का सुषिरक अवरुद्ध हो जाता है जिससे कोशाओं के सघनपुंज बनने लगते हैं। ऐसी अवस्था को शोणवाहिन्यन्तश्छदार्बुद ( haemangio-endothelioma ) कहते हैं या केवल अन्तश्छदार्बुद मात्र कह देने से भी काम चल जाता है। नये कोशा इसमें भ्रमियों में विन्यस्त होते हैं। केशिकीय वाहिन्यर्बुद त्वचा में बहधा बनते हैं और इसके कारण स्वग्धरातल पर चमकदार लालवर्ण का सिध्म बन जाता है। यह एक सहज अवस्था होती है जो जन्म के साथ साथ उत्पन्न होती है । यह पर्याप्त क्षेत्र में व्याप्त मिल सकती है। मुख या सिर की त्वचा में यह प्रायशः मिलता है। वैसे यह किसी भी अंग में मिल सकता है। मुख पर यह पञ्चमीशीर्षण्या नाड़ी की शाखा प्रशाखाओं की दिशाओं में केवल एक ही ओर फैला रहता है। इन त्वग्वाहिन्यर्बुदों को प्रसवकालीन चिह्न माना जाता है। इनको न्यच्छ' ( neavi ) भी कहा जाता है। केशिकीय वाहिन्यर्बुदों की उत्पत्ति श्लेष्मल कलाओं पर भी देखी जा सकती है। नासा, दन्तमांस, ओष्ठ, गुदादि की श्लेष्मलकलाओं में जब यह उत्पन्न हो जाता है तो इन अंगों से पर्याप्त रक्तस्राव होने की आशंका रहती है। इनके मृदु बैंगनी रंग के सरलतया पहचाने जाने वाले सिध्म बन जाते हैं। जिह्वा में स्थूलजिह्वता ( macroglossia ) नामक अवस्था भी इसी के कारण बन जाती है । आन्त्र में अनेक शोणवाहिन्यर्बुद एक साथ बन कर आन्त्र से रक्तस्राव करा देते हैं। ___ वाहिन्यर्बुद अस्थि तथा मस्तिष्क में भी बन सकते हैं। अस्थि में वे अतिवृक्कार्बुद से मिलते जुलते होते हैं । ऐक्सरे चित्रण से अस्थि का प्रचूषण देखा जा सकता है। कुछ वाहिन्यर्बुदों में प्रतीपगामी परिवर्तन देखने में आते हैं। उन परिवर्तनों का मुख्य कारण तन्तूत्कर्ष होता है। ऐसी दशा में केशिकाएँ अभिलुप्त हो जाती हैं पर इतस्ततः बिखरे हुए अन्तश्छदीय कोशाओं के समूह पाये जाते हैं । इसके कारण बहने वाले रक्त या रक्तस्राव से प्राप्त रक्त के द्वारा बने विमेदाभ पदार्थ ( lipoid material ) तथा शोणायसि ( haemosiderin ) पाये जाते हैं। ये दोनों पदार्थ भक्षि अन्तश्छदीय कोशाओं के गर्भ में भी देखे जा सकते हैं। अन्तश्छदीय कोशाओं के १. देखें पृष्ठ ८५६ । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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