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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण (ख) साधारण अर्बुद इस विभाग में तन्त्वर्बुद, विमेदार्बुद, श्लेष्मार्बुद, कास्थ्यर्बुद और अस्थ्यर्बुद का वर्णन किया जायगा । ८२५ तन्त्वर्बुद ( Fibroma ) यह अर्बुद श्वेताभ व ऊति के द्वारा तैयार हुआ करता है । इसकी गाढ़ता प्रस्तरसम काठिन्य से लेकर अति मृदुल तक देखी जाती है । यतः सम्पूर्ण शरीर में तान्तव ऊति पर्याप्त विपुलता के साथ उपलब्ध होती है इस कारण विशुद्ध तान्तवार्बुद का मिलना अति कठिन होता है यद्यपि थोड़ी या बहुत ( अल्पाधिक ) मात्रा में प्रत्येक अर्बुद और व्रणशोथात्मकावस्था में तान्तवऊति योजीऊतीय संधार के रूप में अवश्य पाई जाती है । सम्पूर्ण तन्खर्बुद मारात्मकरूप धारण करके सङ्कटार्बुद बनने का यत्र करते हैं । वास्तव में तन्वर्बुद प्रथमतः एक साधारण प्रकार का निर्दोष अर्बुद होता है । यह ' हण ( firm ), प्रावरित ( encapsulated ) वृद्धि होती है जो आरम्भ में समरस (homogeneous ) होती है । इसमें तन्तुकोशा ( fibrocyte ) या तन्तुरुह (fibroblast ) इन दो में से कोई एक कोशा पाया जाता है । तन्त्वर्बुदों को कठिन और मृदुल इन दो श्रेणियों में विभाजित करने का प्रचलन है कठिन तन्त्वर्बुद ( hard fibroma ) – यह चमकीले श्वेत तान्तव ऊति के खण्डिकामय पुओं ( lobulated masses ) के द्वारा निर्मित होते हैं । इनको काट कर देखने से ये पुञ्ज संकेन्द्रित भ्रमियों ( concentric whorls ) में विन्यस्त होते हैं । खण्डिकाएँ वाहिनियों से युक्त सघन या विरल योजीऊति के द्वारा बँधी होती हैं । ये अर्बुद किसी भी योजीऊति में उत्पन्न हो सकते हैं । इनका धरातल खण्डिकामय हो सकता है । इनकी आकृति वर्तुलाकार ( globular ) और कठिन हो सकती है जो निश्चित रूप से परिलिखित ( circumscribed ) हुआ करती है । पर ऐसा प्रावर नहीं चढ़ा होता जैसा कि विमेदार्बुद में मिलता है । इन अर्बुदों में श्लेषजन की मात्रा बहुत अधिक होती है । इनके कोशा तन्तुकोशा ( fibrocytes ) होते हैं । ये अर्बुद जैसा कि नाम से विदित है खूब कड़े और दृढ़ तथा प्रावरयुक्त होते हैं | काटकर देखने से आधूसर श्वेत, चमकीली तान्तव आभा उसके धरातल की दिखलाई देती है । 1 For Private and Personal Use Only ये कठिन तान्तव अर्बुद श्लेष्मपर्यस्थ से सम्बन्धित ऊर्ध्व और अघो हनुओं में मिल सकते हैं । वहाँ या तो वे अस्थिकेन्द्र में या पर्यस्थ में उत्पन्न होते हैं और दन्तपुष्पुट (epulis) उत्पन्न करते हैं । इनकी उत्पत्ति का दूसरा स्थल नासाग्रसनी ( nasopharynx ) है । परिणाही वातनाड़ियों के कंचुकों ( sheaths of peripheral nerves ) से भी ये निकलते हैं। वहाँ ये ऊति शूलयुक्त कठिन उपस्वगीय ग्रन्थक बना देते हैं । अकेले या बहुत से होने पर इनके कारण जो अवस्था बनती है उसे वातनाडीयतन्यर्बुदोस्कर्ष या चेतान्यर्बुदोत्कर्ष (neurofibromatosis ) कहते हैं ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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