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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८२३ किस स्थान पर गर्भाशय में सङ्कटोत्पत्ति हुई है इस पर मारात्मकता बहुत अधिक निर्भर रहती है । जब वह किसी तन्खर्बुद या साधारण अर्बुद में उत्पन्न होता है तब आरम्भ में मारात्मकता कम रहती है । पर जब वृद्धि गर्भाशय के पेशीयस्तर या अन्तःस्तर से उत्पन्न होती है तो उसमें मारात्मकता बहुत प्रबल होती है। अधिकतर गर्भाशय की क्रमिक वृद्धि होती है जिसके साथ कभी तो यौनरक्तस्त्राव होता है और कभी नहीं होता । विलम्ब से या शीघ्र गर्भाशयसङ्कट विस्थायोत्पत्ति करता है । विस्थाय सदैव रक्तधारा द्वारा बनते हैं। इसमें कोष्टोत्पत्ति ( cyst formation ) की काफी गुंजाइश रहती है । पेशीय या तन्तुपेशीय गर्भसङ्कट का अण्वीक्षण करने पर वह बृहद् तर्कुरूप कोशाओं द्वारा बने मिलते हैं। कभी कभी वे आकार में बड़े और गोल भी हो सकते हैं । उनकी न्यष्टियाँ पर्याप्त बड़ी और विभजनाङ्कों से प्रायः युक्त मिलती हैं। इस अवस्था में यह पहचान करना कि अर्बुदकोशा तन्तुरूहों से बने हैं या पेशीतन्तुओं से, बहुत कठिन पड़ता है । अन्तस्तर से उत्पन्न गर्भसङ्कट में तर्कुरूप तथा गोलकोशा अण्वीक्षण पर पाये जाते हैं। जितना ही यह अधिक मारक होगा उतने ही इसमें विभजनाङ्क या सूत्रिभाजनाङ्क अधिक मिलेंगे । यह उदरच्छद, प्रादेशिक लसग्रन्थियाँ तथा अन्य दूरस्थ अङ्गों तक जाता है । ८. स्तन सङ्कट --- मूत्रप्रजननाङ्ग से स्पष्ट सम्बद्ध स्तन न होने पर भी प्रजनन के साथ इनका सदैव सम्बन्ध रहता है । अतः हम स्तनसङ्कट का वर्णन इसी प्रकरण में करना आवश्यक मानते हैं । स्तनसङ्कट बहुत कम होने वाला रोग है । यह काटने पर मछली के मांस के सदृश समरस धरातल वाला दीख पड़ता है जिसमें स्तन कर्कट के समान पीत ऊतिनाशीय क्षेत्र या रेखन ( striation ) नहीं होता । कर्कट जितना ही कठिन होता है यह उतना ही मृदुल होता है इस कारण इसे प्रत्यक्ष देखकर भी पहचाना जा सकता है । स्तन में जो सङ्कटार्बुद बनता है वह ग्रन्थिसङ्कट ( adeno-sarcoma) कहलाता है जो तन्तुग्रन्थ्यर्बुद के द्वारा बनता है । तन्तुग्रन्थ्यर्बुद सदैव वयस्कों का रोग है । इस कारण यह बालकों में नहीं पाया जाता । चालीस वर्ष की प्रौदाओं में स्तनसङ्कट सरलतापूर्वक देखा जा सकता है । स्तनसङ्कट तर्कुकोशा-संकट का ही एक रूप होता है । इसमें अधिच्छदीय कोशाओं के समूह मिलते हैं पर उनमें मारात्मक गुण नहीं होता और अन्त में वे लुप्त भी हो जाते हैं। ये वास्तव में तन्तुग्रन्थ्यर्बुद के अधिच्छदीय अवशेष मात्र होते हैं । आरम्भ में यह सङ्कट प्रावरित होता है पर आगे चलकर बड़े वेग से अन्तराभरित हो जाता है । यह अर्बुद स्तनऊति को चीर कर त्वचा को काटता हुआ बढ़ता जाता है । इसके द्वारा कवकान्वित पुंजों का निर्माण होता है जिनमें व्रणन, उपसर्ग और For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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