SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 883
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०२ विकृतिविज्ञान कणार्बुद तथा ताकारी कोशा वाले संकटार्बुद तथा अनघट्य कर्कट तथा गोल कोशा वाले संकटार्बुद एक दूसरे से बहुत कुछ मिलते हैं । विद्यार्थी और वैद्य दोनों का धर्म है कि वह यह समझ ले कि कर्कट और संकट ये दोनों ही मारात्मक हैं परन्तु कर्कट का बहुत बड़ा और पर्याप्त विशाल क्षेत्र है जब कि संकट उसकी तुलना में बहुत संकीर्ण क्षेत्र का स्वामी है। संकटार्बुद की मारात्मकता संकटार्बुद की मारात्मकता या दुष्टता सदैव एक सी नहीं रहती। जिसमें यह बहुत उग्र स्वरूप की होती है उसमें तो वैकारिकीविद् सरलतापूर्वक कह देता है कि यह अर्बुद मारात्मक और संकटार्बुद है। पर जहाँ साधारण संयोजी ऊति के द्वारा शनैः शनैः संकटाबंदीय रूप आता है वहाँ कुछ भी कहना बहुत कठिन हो जाता है । जब तन्त्वर्बुद ( fibroma ) मारात्मक बनना आरम्भ करता है तो अण्वीक्षक को एक ओर वह तन्वर्बुद दिखता है और दूसरी ओर कणीय ऊति । ब्वायड का कथन है कि इस अन्तर का भेद एक अनुभवी व्यक्ति की अन्तरात्मा ही कर सकती है तथा उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यदि उत्पन्न होने के तुरत बाद किसी अर्बुद का उच्छेद होता चला जावे तो भी उसकी मारात्मकता के स्पष्ट लक्षण प्रकट नहीं हो पाते। संकटार्बुद का प्रत्यक्षदर्शन एक संकट दूसरे संकट से बहुत भिन्न हो सकता है । इतना भिन्न कि उसको व्यक्त करना कठिन हो जाता है। फिर भी उनमें कुछ सर्वसामान्य ऐसे लक्षण भी पाये जाते हैं जिन्हें हम नीचे व्यक्त करते हैं १. देखने में एक संकट मांस (सार्क) सरीखा लगता है इसी से इसे सार्कोमा या मांसार्बुद कहने का रिवाज चल पड़ा मालूम होता है। २. इसका एक ऐसा प्रपुञ्ज ( bulk ) बनता है जैसा कर्कट का भी नहीं बनता जिसके कारण यह समीप की अन्य ऊतियों से बिल्कुल पृथक और उठा हुआ देखा जाता है। __३. जितना ही अधिक संकट कोशावान् ( cellular ) होता है उतना ही वह मस्तिष्क के मस्तुलुंग या श्वेत पदार्थ के सदृश दिखाई देता है। ___४. संकट की गाढता ( consistency ) सदैव एक सी नहीं मिलती पर वह अधिकांश मस्तुलुंग के ही समान प्रायः मृदुल ( soft ) हुआ करता है। ५. संकटार्बुद का कटा हुआ धरातल सदैव समरस ( homogeneous ) होता है जो इसकी एक महत्त्वपूर्ण और प्रमुख विशेषता है। पर यतः इसके साथ विहासों की श्रृंखला सी लगी रहती है अतः वह इसकी समरसता को बिगाड़ दिया करती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy