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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ७६३ ८- अवटुकाप्रन्थिस्थ ग्रन्थ्यर्बुद (Adenoma of the Thyroid Gland) कालोपरान्त गलगण्ड ( goiter ) ग्रन्थकीय रूप धारण कर लेता है । इन ग्रन्थकीय रचनाओं ( nodular formations ) को साधारणतया ग्रन्थ्यर्बुद नाम दे दिया जाता है । किन्तु यहाँ इस शब्द का उपयोग अनुचित है क्योंकि ये ग्रन्थक शुद्ध ग्रन्यर्बुद नहीं होते । मनुष्यों में ग्रन्थि का परमचय सिध्मों (patches) में होता है जिससे स्थानिक क्षेत्र बन जाते हैं जिनको अवटुका की तान्तव पट्टियाँ पृथक् कर देती हैं तथा वास्तविक अर्बुद की तरह इन पर भी प्रावर चढ़ जाता है । परमचयावस्था में ग्रन्थि सम्पूर्ण रूप से बढ़ती है अतः इन ग्रन्थकों का पता चलता नहीं पर जब वह अवस्था शान्त हो जाती है तो ग्रन्थक प्रकट होते हैं । नैदानिक दृष्टि से वे कभी नहीं दिखते पर जब ग्रन्थि को काटा जाता है तो कटे धरातल पर वे पाये जाते हैं । इनकी संख्या अवस्था पर निर्भर होती है । दो प्रकार के विक्षत इस रोग में देखने में आते हैं- एक को लेपाभ ग्रन्थ्यर्बुद ( colloid adenoma ) कहते हैं और दूसरे को भ्रौण ग्रन्थ्यर्बुद ( foetal adenoma ) कहते हैं इन दोनों को पृथक-पृथक नाम से परन्तु हम इन दोनों का अलग-अलग. । लाने के सम्बन्ध में भी मतैक्य नहीं है । ही वर्णन करते हैं । श्लेषाभ ग्रन्थ्यर्बुद – इसे लेपाभग्रन्थकीय गलगण्ड ( colloid nodular goiter ) भी कह सकते हैं। यह उत्तर अमेरिका में अधिकतम पाया जाने वाला गलगण्ड है । ग्रन्थक ( nodule ) अकेला भी मिलता है परन्तु बहुधा ये कई होते हैं। छोटे-छोटे अनेक ग्रन्थक प्रसरित और प्रवृद्ध अवटुकाग्रन्थि में इतस्ततः छितरे रहते हैं । इस स्थिति को ग्रन्थ्यर्बुदोत्कर्ष ( adenomatosis ) कहा जाता है । कभी-कभी एक या दो ग्रन्थक बड़े हो जाते हैं और ग्रन्थि की बहीरेखा ( outline) को बिगाड़ देते हैं | बड़े ग्रन्थकों पर तान्तव ऊति का प्रावर चढ़ा होता है । ग्रन्थक काटने पर उसका धरातल ग्रन्थि के धरातल के ही समान दिखलाई पड़ता है। साथ ही धीरे-धीरे विहासात्मक परिवर्तन होने लगते हैं जिसके कारण ग्रन्थकको मल हो जाता है, उसमें कोष्ठक बन जाता है तथा रक्तस्राव भी होने लगता है। कोष्ठक के अन्दर का रस स्वच्छ होता है और उसमें पैत्तव ( कोलैस्टरौल ) के स्फट चमकते हुए देखे जाते हैं । पुराना हो जाने पर रक्त के पुराने पड़ जाने से उसका वर्ण बभ्रु ( brown ) हो जाता है । ग्रन्थ्यर्बुद या कोष्ठक के केन्द्रभाग में चूर्णीयन बहुधा देखा जाता है । अण्वीक्ष से देखने पर ग्रन्थि और इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। जो कुछ अन्तर दिखता है वह एक तान्तवपटी (fibrous septum) का होता है । इस वृद्धि के कारण ग्रन्थक के बाहर के गर्त्ताणुओं पर इतना दबाव पड़ जाता है कि वे बहुत अधिक संकुचित हो जाते हैं । ग्रन्यर्बुद में परमचय के परिवर्तन तभी दिखलाई पड़ते हैं जब ग्रन्थि के अन्य भागों में भी ये परिवर्तन होने लगते हैं । कभी-कभी केवल ग्रन्थ्यर्बुद में ही परमचयाधिक्य पाया जाता है और तब यह अधिक क्रियाशीलता का एक केन्द्र बन जाता है । ६७, ६८ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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