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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण वस्था में होने वाला रोग है मगर बीस वर्ष की युवती से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा तक को भी यह रोग देखा जा सकता है। दुर्भाग्यवश स्त्री जितनी ही अधिक नवयौवना होगी, कर्कट भी उतनी ही घातकतापूर्वक उस पर प्रहार करता है । वाम स्तन में यह रोग दक्षिण स्तन की अपेक्षा अधिक होता है। स्तन के ऊर्ध्व बाह्य चतुर्थांश में जितना अधिक यह रोग मिलता है उतना अन्य चतुर्थांशों ( quadrants ) में नहीं । उसके पश्चात् अधोबाह्य, ऊर्ध्वान्तर तथा सबसे कम अधोन्तर चतुर्थांश आता है। यह कर्कट बहुप्रसवाओं और अप्रसवाओं में एक बराबर मिलता है तथा शिशु के स्तनपान का रोग पर कोई महत्त्व का प्रभाव नहीं पढ़ा करता। यद्यपि माता से पुत्री में और पुत्री से पौत्री में यह रोग देखा जा सकता है जिसके उदाहरण ढूंढना कोई बहुत कठिन कार्य नहीं है परन्तु फिर भी यह रोग कुलज प्रवृत्ति रखने वाला नहीं है। यह सदैव स्मरण रखना होगा कि महिला-शरीर में स्तन एक ऐसा अंग है जो उसकी अवस्था के साथ सहसा और आत्यन्तिक परिवर्तन कर सकता है। शैशव, यौवन, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था सभो में उसमें परिवर्तन देखे जाते हैं। तारुण्य, ऋतुकाल, सगर्भता, स्तन्यकाल और रजोनिवृत्तिकाल में उसमें परिवर्तन आते हैं। यही कारण है जो इसके विस्तृत अधिच्छद में कर्कटोत्पत्ति इतनी सरलता से हो जाती है। जैसे अन्य कर्कटों का प्रसार होता है ठीक उसी तरह इसका भी प्रसार स्तन से शरीर के अन्य भागों तक हुआ करता है । यद्यपि अन्तःशल्यता इस रोग के प्रसार में बहुत महत्त्व का भाग नहीं लेती जितना कि लसवहाओं का अतिवेधन ( permeation ) जिसमें कर्कट कोशा एक सघन स्तम्भ के रूप में लसनालियों में उत्पन्न होता है। यह मूल कर्कट से किसी भी दिशा में अर्थात् सर्व दिशाओं में बिना लसधारा के प्रवाह की गति का विचार किए कहीं भी हो सकता है। इस रूप में यह कक्षास्थ लसग्रन्थियों में प्रवेश कर सकता है जहाँ से फुफ्फुसान्तराल में वहाँ से उदर और यकृत् में हृदयाधरिक प्रदेश ( epigastrium ) में होकर जा सकता है। उसके आगे अस्थियों तथा अन्य दूरस्थ अंगों तक इसका प्रभाव देखा जा सकता है। जो लसवहा प्रावरणी (fascia) तक जाती है और वहाँ से त्वचा को उसमें जब अतिवेधन होता है तब त्वचा भी कर्कटाक्रान्त हो जाती है। लसवहाओं के अतिवेधन से उनमें तन्तूत्कर्ष बहुत होने लगता है। इसमें वाहिनियाँ संकोचनशील तान्तवऊति के रज्जु(strand) मात्र रह जाते हैं। इसी कारण कर्कट के चारों ओर विस्तृत वलियाँ (puckerings) मिलती हैं। कहीं-कहीं कर्कट कोशाओं का प्रत्यक्ष अन्तराभरण पेशियों और वक्षप्राचीर में हो जाता है, कहीं-कहीं लसधारा और रक्तधारा दोनों से कर्कट कोशाओं का गमन होता है। हृदयाधरिक प्रदेश में होकर एक बार भी जब उदरच्छद तक कर्कट कोशाओं का आक्रमण हो जाता है तो सम्पूर्ण उदरच्छद में कर्कटकोशा प्रसरित हो जाते हैं । इस प्रकार फुफ्फुसान्तराल के जितना समीप प्राथमिक कर्कट होता है उतनी ही शीघ्रता से फुफ्फुस में उत्तरजात वृद्धियाँ देखी जाती हैं। इसी प्रकार कर्कट हृदयाधरिक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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