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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण अण्वीक्षण से इस कर्कट का स्वरूप अश्मोपम कर्कट या ग्रन्थि कर्कट के तुल्य पाया जाता है। दोनों में अश्मोपम ही अधिक मिलता है। ब्वायड का कथन है कि अण्वीक्षण पर जब विकृतिविशारद को दौष्ट्य ( malignancy ) का तनिक भी सन्देह हो तो समझना होगा कि अष्ठीला में अवश्य ही कर्कट है । स्तनकर्कट में सन्देह होना कर्कट के सदैव विरुद्ध जाता है। कभी-कभी (पर बहुत ही कम ) कर्कट कोशा पीले मेद से भरपूर होने के कारण झागदार दिखलाई देते हैं इन्हें पीतकर्कट (carcinoma xan thomatodes ) कहते हैं। ___ अष्ठीला कर्कट से पीडित प्राणी बहुत ही कम बचते हैं। परमचय के लिए हुए शस्त्रकर्म में यदि अकस्मात् कर्कट कोशा मिल जावें तब भी विस्थायों के कारण या पुनरुत्पत्ति द्वारा मृत्यु हो जाया करती है। ____ इस कर्कट का प्रसार भी बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। अष्ठीला ग्रन्थि के पश्च भाग में प्रायः कर्कटिक वृद्धि हुआ करती है । वहाँ से शुक्रप्रसेकिनी (ejaculatory duct) की दिशा में फैलती है। उसके पश्चात् बस्ति और शुक्रप्रपा के बीच में गुदपरीक्षण पर मालूम की जा सकती है। बस्ति का फर्श और उसके समीप की तान्तव रचनाएँ फिर आक्रान्त हो सकती हैं। इस कर्कट का प्रसार परिवातीय लसवहाओं (perineural lymphatics ) द्वारा होता है जो इसके प्रसार के मुख्य साधन हैं और जो कर्कट कोशाओं से रूंधी और फूली हुई प्रायः दिखा करती हैं। अष्ठीला के प्रावर के परिवातीय कर्कटिक आक्रमण का होना सबसे पहले परिवर्तनों में से एक घटना है। मूल कर्कट चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो प्रावर तक आक्रमण हो सकता है और वहाँ से आगे बस्ति, मूत्रमार्ग, शुक्रप्रपिका, मलाशय, बस्ति गुदान्तरीय स्थालीपुट (rectovesical pouch ) वपावहन तथा अस्थीय श्रोणि तक आक्रमण मिल सकता है। श्रोणीय और कटिप्रदेशीय लसग्रन्थक सर्वप्रथम आक्रान्त होते हैं। वहाँ से आगे ग्रैविक तथा अधिअक्षीय (supraclavicular ) लसग्रन्थकों तक उपसर्ग जा सकता है । शुक्रप्रपिकाओं (seminalis vesiculae) और मूत्रमार्ग का लसवहा सम्बन्ध वंक्षण प्रदेशस्थ लसग्रन्थकों से होने के कारण पन्द्रह प्रतिशत रोगियों में वंक्षण प्रदेशीय लसग्रन्थक भी आक्रान्त मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कदाचित् ही कोई एक लसग्रन्थक इससे बचता हो। अष्ठीला ग्रन्थि के कर्कट के विस्थाय (metastases) रक्तधारा द्वारा यकृत् , फुफ्फुसादि स्थलों में देखे जाते हैं। परन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विस्थाय इसके द्वारा अस्थियों में बनाए जाते हैं। सत्तर प्रतिशत मृतकों में अस्थीय विस्थाय देखे जा चुके हैं। श्रोणि और कटिस्थ कशेरुकों में ये विस्थाय पाये जाते हैं। वहाँ से ऊर्वस्थि और पशुकाओं तक भी मिलते हैं । त्रिक और कटिप्रदेश में उपसर्ग का कारण परिवातीय लसवहाएँ होती हैं परन्तु बाटसन के मत में सिराओं के कशेरुकीय संस्थान (vertebral system of veins ) द्वारा उपसर्ग जाता है । तब किसी वृद्ध व्यक्ति को अस्थि का अर्बुद हो तो उसकी अष्ठीला ग्रन्थि में कर्कट होने का सन्देह किया जा सकता है और उसके लिए इस ग्रन्थि का परीक्षण अवश्य करना चाहिए। अस्थि में अष्ठीलाग्रन्थि कर्कट के कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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