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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५४ विकृतिविज्ञान काफी गहराई तक हो जाती है। उसमें ऊतिनाश तथा वणन हो जाता है जिससे एक कर्कटीय व्रण बन जाता है। अण्वीक्षण में देखने से वह अश्मोपम या मज्जकीय प्रकार का होता है। इन दोनों प्रकार के कर्कटों में कोशा अप्रारूपिक ( atypical ) होते हैं। उनका विभिन्नन निम्न श्रेणी का होता है परन्तु दुष्टता बहुत उच्च होती है। उनसे विस्थाय जल्दी बनते हैं। लसवहाओं द्वारा जघनस्थ लसग्रन्थियों ( iliac lymph glands) तथा कटिस्थ ( lumbar) लसग्रन्थियों तक प्रभाव पड़ता है। रक्तधारा द्वारा फुफ्फुस, यकृत् तथा कभी-कभी अस्थियों तक प्रभाव पड़ जाता है। जब अंकुराबंद कर्कट का रूप लेता है तब दुष्टता निम्न होती है तथा विस्थाय देर से बनते हैं। पित्ताश्मरी से जिस प्रकार पित्ताशयिक कर्कट का सम्बन्ध होता है वैसा यहाँ नहीं होता। विनीलिनीय ( snileinic ) संयोगों ( compounds ) के साथ कार्य करने वाले श्रमिकों के मूत्र में विनीली निकलती है इस कारण उनको बस्तिकर्कट देखे जाते हैं। ___ उत्तरजात बस्तिकर्कट पुरुषों में अष्ठीला ग्रन्थि या मलाशयस्थ कर्कट के द्वारा तथा स्त्रियों में गर्भाशयग्रीवा एवं गर्भाशयस्थ कर्कट द्वारा बना करते हैं। बस्ति में कर्कटोत्पत्ति के तीन स्थान होते हैं । एक गवीनीमुखों के बाहर, दूसरा, बस्तिग्रीवा पर और तीसरा प्रकोष्ठ (vault) में। गवीनीमुखों पर वृद्धि होने से ये मुख बन्द हो जा सकते हैं । उस दशा में उद्धृक्कोस्कर्ष हो सकता है तथा उपसर्ग के छू जाने से बस्तिपाक एवं वृक्कपूयोस्कर्ष (pyonephrosis ) हो सकता है। मृत्यु का कारण मूत्ररक्तता (uraemia) हुआ करता है। (१०) पुरुषप्रजननाङ्गीय कर्कट १-पुरःस्थ (अष्ठीला) ग्रन्थि कर्कट (Carcinoma of the Prostate) पुरःस्थ ग्रन्थि का कर्कट बहुधा पुरःस्थ ग्रन्थि की वृद्धि के साथ-साथ प्रौढावस्था में पाया जाता है पर इस परमचय और कर्कट में आपस में कोई सम्बन्ध होना सिद्ध नहीं किया जा सका है। इस ग्रन्थि में वृद्धि का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि उसके काठिन्य का है । एक अश्मोपम कर्कट की भाँति यह करकराहट के साथ कटता है। कटा हुआ धरातल शुष्क होता है, उसमें न तो उभार होता है न गाँठे होती हैं और न खण्डोपखण्ड ही पाये जाते हैं। कर्कटीय कोशाओं के पीत द्वीपसमूह इसमें देखने में आते हैं जैसे कि स्तन के अश्मोपम कर्कट में मिला करते हैं। यही सब विशेषताएँ अष्ठीला के परमचय से इसे पृथक करती हैं। परमघटित अष्टीला का जब उच्छेद किया जावे तो कटे हुए भाग में से एक छेद ( section ) लेकर अण्वीक्ष के नीचे रखना चाहिए और देखना चाहिए कि उसमें कहीं दौष्ट्य के क्षेत्र तो नहीं बन गये हैं। रिच नामक विद्वान् ने मृत्यूत्तर परीक्षण पर यह मालूम किया कि ५० वर्ष से ऊपर मरने वालों की अष्ठीला ग्रन्थियों में से १४ प्रतिशत में कर्कटीय कोशा उपस्थित थे। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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