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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान histiocytes ) बड़ी से बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं और उन्हीं की आकृति में परिवर्तन होकर वे तान्तव कोशाओं में परिणत हो जाते हैं। ___ तन्तूत्कर्ष ( fibrosis) के अतिरिक्त जीर्ण व्रणशोथ में निम्न अवस्थाएँ और भी देखी जाती हैं: १. अंग की रक्त पूर्ति में बाधा-प्रभावित अंग में अधिरक्तता (hyperaemia) थोड़ी बहुत मिलती है परन्तु एक महत्त्व का परिवर्तन जो तीव्र व्रणशोथावस्था में दृग्गोचर नहीं होता था वह यहाँ विशेष करके होता हुआ देखा जाता है। इसे अभिलोपी अन्तर्धमनी पाक ( obliterative endarteritis) कहते हैं। इसमें व्रणशोथ क्षेत्र में पड़ी धमनी का अन्तश्छद जो बहुत समय से प्रक्षुब्ध हुआ रहता है उसमें अकस्मात् अतिवृद्धि ( hyperplasia ) प्रारम्भ होकर तन्तूत्कर्ष होने लगता है जिसके कारण धमनी सुपिरक ( lumen of the artery ) या धमनीमुख तंग होता चला जाता है और कुछ समय बाद घनास्रोत्कर्ष के कारण पूर्णतः बन्द हो जाता है। इस प्रकार उस अंग की रक्तपूर्ति कम होती चली जाती है। आसपास के केशालों पर व्रणवस्तु ( scar tissue ) के संकोच का भार पड़ने से और भी कम रक्त की मात्रा अंग तक पहुँचती है । इसके कारण विक्षत के ठीक होने में और विलम्ब हो जाता है। २. प्रभावित अंग में, तन्तूत्कर्ष की क्रिया होने से, तरल संचय से तथा कोशाओं के अन्तराभरण से पर्याप्त सूजन (प्रगण्डता) होती है। ३. प्रभावित अंग में शूल बराबर रहता है। ४. प्रभावित अंग न शीतल ही लगता है न उष्ण । ५. जीर्ण व्रणशोथग्रस्त क्षेत्रों में एकन्यष्टिकोशा, लसीकोशा तथा प्ररसक्रोशा प्रायशः मिलते हैं, बहुन्यष्टि सितकोशा भी रहते हैं। यदि व्रणशोथ का कारण पूर्यजनक जीवाणु हुए तो चिरकालीन पूयन भी मिलता है। यदि व्रणशोथ का कारण कोई अविलेय बाह्यपदार्थ हो अथवा बहुत अधिक ऊतिनाश हो चुका हो तो वहाँ अस्सी अस्सी न्यष्ठीलायुक्त अतिकायकोशा (giant cells) भी प्रकट होने लगते हैं। जो विद्रधियाँ सूख जाती हैं उनके पास जो पैत्तवस्फट ( cholesterol crystals) बन जाते हैं उनके समीप बहुत बड़ी संख्या में ये महाकाय कोशा देखे जाते हैं। ये यचमा, फिरंग के गोंदाधुंद, किरणकवकोत्कर्ष ( actinomycosis), कुष्ठ तथा कभी-कभी चिरकालीन पूयजनक उपसर्गों में मिल जाते हैं। इन रोगों में बहुत अधिक ऊतिनाश होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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