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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ की अत्यधिक मात्रा के कारण विभिन्न आवृत्त अङ्गों पर विशेष प्रभाव पड़ सकता है। परिहृदयावरण में तरलाधिक्य हृद्गति पर परिणाम करता है। फुफ्फुसच्छद में तरल संचय से फुफ्फुसों पर जो प्रभाव पड़ता है वह सर्वविदित है। अत्यधिक जीर्ण अवस्थाओं में तान्तवऊति के सिकुड़ने पर विकृति बहुत हो जाती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि लसीकला की दो सतहों में व्रणशोथ के कारण जो अभिलग्नता आ जाती है वह प्रायशः सुरक्षात्मक ही होती है । फुफ्फुस में यक्ष्माजन्य स्थान के ऊपर फुफ्फुसच्छद के अभिलग्न हो जाने (चिपक जाने) से फुफ्फुसच्छदीय गुहा ( pleural cavity ) तक यक्ष्मा का व्रणीभवन नहीं पहुँच पाता। इसी प्रकार आमाशय या आन्त्र पर उनकी लसीकला की अभिलग्नता उनके छिद्रण (perforation ) को रोकने में पर्याप्त सहायता करती है। और यदि छिद्रण हुआ भी तो उपसर्ग मर्यादित ( localised ) रहता है। जीर्ण व्रणशोथ जब कोई मृदु या साधारण प्रक्षोभक दीर्घकालपर्यन्त अपनी क्रिया शरीर के किसी अङ्ग विशेष पर करता रहता है तो व्रणशोथ की जीर्णावस्था प्रकट होती है इसमें विघटनात्मक एवं रचनात्मक दोनों क्रियाएँ साथ साथ चलती रहती हैं। प्रारम्भ में प्रक्षोभक के कारण तीव्र व्रणशोथ उत्पन्न हुआ करता है पर कहीं कहीं कब व्रणशोथ ने पैर जमाये इसका ज्ञान ही नहीं हो पाता । जीर्ण वृकपाक (chronic nephritis) के कुछ रुग्णों में प्रारम्भ में कोई कठिनता या रोग लक्षण नहीं प्रकट होता पर धीरे धीरे वृक्क का विनाश चलता रहता है और जब पहली बार वृक्कों की क्रिया बन्द होती है उस समय तक दो तिहाई वृक्क नष्टप्राय हो चुके होते हैं। जैसे तीव्र व्रणशोथ एक निःस्रावकारिणी ( exudative ) अवस्था है वैसे ही जीर्ण व्रणशोथ प्रगुणनावस्था ( proliferative ) होती है। तान्तव ऊति का प्रगुणन इसकी विशेषता है । तान्तव धातु की वृद्धि के दो कारण हैं एक तो बराबर अंग में अधिरक्तता होना जिसके कारण पोषक तत्व निरन्तर मिलते रहते हैं इससे ऊति का निर्माण लगातार चलता रहता है। दूसरे, अंग के जो विशिष्ट अतिकोशा ( specialised tisue cells ) मरते हैं तो वे इस तान्तव उति के निर्माण के लिए उत्तेजना प्रदान करते हैं। ____तान्तव ऊति के निर्माण या उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन आंग्ल कल्पना यह है कि प्रत्येक उति में स्थानीय कुछ तान्तव ऊति कोशा होते हैं । जीर्ण व्रणशोथ काल में इन्हीं से तन्तुरुहो ( fibroblasts ) की उत्पत्ति होने लगती है। वे जब प्रौद ( mature ) हो जाते हैं तो अपना श्लेषजन ( collagen ) छोड़कर तन्तुकोशा ( fibrocyte ) में परिणत होजाते हैं। परन्तु, नवीन कल्पना एक दम नवीन है। इसके अनुसार व्रणशोथ स्थल पर शरीरस्थ महाभक्षी प्रोतिकोशा ( macrophage For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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