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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२८ विकृतिविज्ञान कठिन है। परन्तु यह तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि केवल अवरोध ही उसका कारण नहीं है क्योंकि यह अवरोध तो बहुत ही धीरे-धीरे हुआ करता है। ऐसा लगता है कि श्वासकृच्छूता ( dyspnea ) का कारण हृदय है। हृदय के ऊपर तक फुफ्फुसान्तराल ( mediastinum ) बढ़ जाता है और उसकी क्रिया में बाधा पहुँचाता है। * उरःप्रदेश में शूल दो प्रकार का हो सकता है। एक तो ऐसा कि जो फुफ्फुस में कहीं बहुत गहराई में रहता है और जिसका स्थाननिर्धारण ( localisation) करना अतिकठिन रहता है। यह शूल बहुधा रोग के आरम्भकाल में होता है। पर जब प्राचीरस्थ फुफ्फुसच्छद ( parietal pleura ) प्रभावग्रस्त हो जाता है तब अधिक ऊपरी सतह पर दुखदाई फुफ्फुसच्छदपाक ( pleurisy ) का शूल मिलने लगता है। अन्य अवस्थाओं में शूल का कारण वातनाडियों पर पीडनाधिक्य हो सकता है या गले की अस्थियों में विस्थायन के कारण भी शूल मिल सकता है। लगभग पचास प्रतिशत कर्कटफुफ्फुसियों के पृष्ठ, उरस् और उदरप्रदेश में शूल हुआ करता है। उपरोक्त लक्षणों के अतिरिक्त संतापाधिक्य ( fever ) भी एक लक्षण होता है जिसके कारण यच्मा का भ्रम प्रायशः चिकित्सकों को हो जा सकता है। ज्वर के कई कारण हो सकते हैं जिनमें पूयीय श्वासनालपाक, उरःक्षत या किसी बड़ी श्वसनिका का अवरोध होना मुख्य है । ज्वर के कारण सितकोशोत्कर्ष अवश्य होता है। ज्यों ज्यों रोग बढ़ता जाता है त्यो त्यों विविध अङ्गों पर पीडन ( pressure ) के कारण भी कई लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं। अन्नप्रणाली पर पीडन होने से निगलनकृच्छ्रता ( dysphagia) हो जाती है। कण्ठनाल पर पीडन होने से घुर्घर. युक्त श्वसन (stridor ) हो जाता है। परावर्तिनी स्वरयन्त्रग वातनाडी के दब जाने से स्वरसाद या स्वरहास (aphonia) हो सकता है। यदि स्वतन्त्र नाडीमण्डल दब गया तो नेत्र तारकों में असमता ( inequality ) आ जायगी। नाडी देखने पर दोनों हाथों में भिन्नता मिलेगी। यदि ग्रीवास्थ बृहच्छिराओं पर पीडन हुआ तो सिरारक्त की अतिपूर्णता (engorgement) से मुखादि में श्यामता आ सकती है। फुफ्फुस में दूषकता की उपस्थिति तथा शरीर को कम जारक मिलने से मुद्गराङ्गुलिपर्वता ( clubbing of the fingers) मिल सकती है। फुफ्फुसच्छद के प्रभावित होने के कारण उरस्तोय ( wet pleurisy ) आधे रोगियों तक देखी गई है। उरस्तोय जो कर्कटजन्य है इसकी दो प्रमुख विशेषताएँ होती हैं एक तो यह कि प्लूरल तरल में रक्त उपस्थित होता है। दूसरे एक बार इस जल का निर्हरण कर देने के बाद बहुत ही शीघ्र जल फिर भर जाता है। इस जल में कर्कट कोशा मिल सकते हैं । कभी कभी तो अन्तश्छदीय कोशाओं को भ्रमवश कर्कटकोशा मान ले सकते हैं अतः इन कोशाओं की उपस्थिति से इस रोग की पुष्टि For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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