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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१६ अर्बुद प्रकरण स्तम्भकोशीय कर्कट अपने ग्रन्थीय स्वरूप को व्यक्त करने में जब तक समर्थ रहता है तब तक वह ग्रन्थिककट ( adeno carcinoma ) या दृष्ट ग्रन्थि अबंद ( malignant adenoma) कहलाता है। ग्रन्थिकर्कटोत्पत्ति के सामान्य स्थान वक्षस्थल, सर्वकिण्वी, पित्तप्रणालिकाएँ, पित्ताशय, बृहदन्त्र, आमाशय तथा गर्भाशय आदि हुआ करते हैं। इन कर्कटों में कोशाओं का विन्यास गर्तीय या प्रणालीय रहता है। ये कोशा स्तम्भाकारी होने पर भी उनका रूप चौकोर ( cubical ) पाया जाता है। इनकी दुष्टता का पता तीन बातों से लगा करता है: (१) कोशाओं और विशेष कर उनकी न्यष्टियों की विषमता । (२) कोशास्तरों का प्रगुणन, तथा । (३) यकृत् रचनाओं की स्पष्ट भरमार तथा ग्रन्थीय भाग में प्रावर का अभाव । अधःस्तृतकला साधारणतया तो नहीं होती या बहुत अपूर्ण होती है जिसके कारण सम्पूर्ण चित्र में असमता ( irregularity ) ही प्रकट होती है। जब कि प्रकृत स्तम्भकोशीय रचनाओं में समता का होना एक अनिवार्य गुण पाया जाता है । आन्त्र और आमाशय में प्रकृत कोशाओं से दुष्ट कोशाओं में जो परिवर्तन होता है वह स्पष्ट और पूर्ण होता है इसलिए इन स्थानों की प्रकृत रचनाओं और दुष्ट वृद्धियों में स्पष्टतः विभेदक रेखा खींची जा सकती है। ग्रन्थि कर्कट नाम से हम स्तम्भकोशीय कर्कटों का पर्याप्त वर्णन पीछे भी कर चुके हैं। गोलाभकोशीय कर्कट ये स्तम्भकोशीय कर्कटों से अधिक दुष्ट होते हैं ये ग्रन्थीय कर्कटों के ही प्रकार हैं जिनमें रचनाओं की अनघटता ( या अपचय ) बहुत अधिक रहती है इनके २ मुख्य भेद हैं जिनमें अश्मोपम ( scirrhus) कर्कट और दूसरा मजकीय ( medullary ) या मस्तुलंगाभ ( encephaloid ) कर्कट कहलाता है। इनका वर्णन कर्कट के साथ स्पष्टतः दिया गया है वहाँ पाठकगण देख सकते हैं। संक्षेप में अश्मोपम कर्कट धीरे-धीरे बढ़ता है, बहुत कठिन होता है। धीरे-धीरे बढ़ने के कारण समीपस्थ ऊतियों को इतना समय मिल जाता है कि वे चारों और एक सघन संयोजी ऊति का घेरा बना सकें। अण्वीक्षण करने पर उसमें दुष्ट कोशा सघन पिण्डों के रूप में दिखलाई देते हैं तथा गर्त निर्माण का कोई प्रयत्न हुआ नहीं दिखता। इनमें कभी कभी क्षुद्र गोल कोशाओं और लसीकोशाओं की भरमार भी रहती है। मस्तुलुङ्गाभ कर्कट में कोशा अधिक तथा संधार बहुत ही कम पाया जाता है। अत्यधिक दुष्ट होने पर संधार विलुप्त रहता है और कर्कट एक संकटार्बुद के सदृश प्रकट होता है। अश्मोपम से लेकर मस्तुलुङ्गाभ कर्कटों तक कर्कट के अनेक प्रकार हो सकते हैं तथा इन दोनों के मध्य में कोई विभेदक रेखा खींची नहीं जा सकती है । अण्वीक्षण करने पर मजकीय अर्बुदों में अनेक विभजनाकों (mitotic figures) की उपस्थिति और भक्षक प्रवृत्ति ( phagocytic tendency ) पाई जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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