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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ७१५ anoar और स्त्री की योनि ऐसे ही स्थान हैं जहाँ स्तृतशल्काधिच्छद पाया जाता है । इस कारण यहाँ शल्ककोशीय कर्कटोत्पत्ति हुआ करती है । अन्तर्वर्ती शल्काधिच्छद ( transitional squamous epithelium ) जहाँ पर होता है वहाँ भी कर्कटोत्पत्ति देखी जाती है। ऐसे स्थान बस्ति, गर्भाशय तथा वृक्कमुख रहते हैं । कभी-कभी अवशेष रचनाओं ( vestigial structures ) से भी अर्बुद निकला करते हैं। इनमें श्वासनालदरी ( bronchial cleft ) अवटु- ग्रसनी प्रणाली ( thyroglossal duct ) आदि आते हैं । शल्काधिच्छद का एक स्वाभाविक गुण यह है कि वह बहुत स्वतन्त्रतापूर्वक प्रगुणित होता है । यही इसका गुण इसमें कर्कटोत्पत्ति होने पर और भी बढ़ जाता है । इसी कारण इस ऊति के अर्बुद बहुत अधिक कोशायुक्त होते हैं और उनमें संयोजी ऊति बहुत कम पाई जाती है । इस अधिच्छद का एक गुण यह भी है कि ऋजु त्वचा के विविध स्तर बनें । अर्बुद निरन्तर प्रगुणन के 'कारण बीच के कोशा कुछ चिपटे हो जाते हैं जिसके कारण उनमें शार्ङ्गि परिवर्तन ( keratinous changes ) आ जाते हैं जिन्हें कोशा कोटर ( cell nests ) या अधिच्छदीय मुक्ता ( epithelial pearls ) कहते हैं । ये बहुधा इन वृद्धियों में देखे जाते हैं । शल्कीय कोशाओं की इस निश्चित विभिन्नता के ही कारण इन अर्बुदों में श्रेणीविभाजन सरलता से हो जाता है । जब स्वाभाविक से वे अधिक मिलते हैं तो उन्हें अल्प दुष्ट की श्रेणी में रख दिया जाता है पर जब वे स्वाभाविक से दूर चले जाते हैं तो उन्हें अतिदुष्ट की श्रेणी में बतलाया जाता है । इन अर्बुदों का विस्तार लसवहाओं द्वारा होता है तथा बहुत दूर पर विस्थापन इनसे नहीं हुआ करता क्योंकि समीपस्थ सग्रन्थिक उन्हें पकड़े रहते हैं और उनके आगे गमन करने को रोक देते हैं । इन अर्बुदों की चार श्रेणियाँ प्रसिद्ध हैं । प्रथमश्रेणी वह होती है जब शार्ङ्गकोशा, कोशाकोटर, अधिच्छदीय मुक्ता ये सभी सुस्पष्ट होते हैं तथा कोई विभजनाङ्क नहीं होता । इस श्रेणी के कर्कट का प्राग्ज्ञान ( prognosis ) बहुत आशाजनक होता है । यदि कर्कट तक पहुँचा जा सके और उसका उच्छेद किया जा सके । चतुर्थश्रेणी में वे कर्कट आते हैं जिनकी सम्पूर्ण रचना इतनी ध्वस्त हो जाती है कि उन्हें यह समझना कि वे शल्ककोशीय ही हैं सन्देहास्पद बन जाता है । उनमें विभजनाङ्क असंख्य होते हैं । प्राग्ज्ञान आशा के बहुत विपरीत होता है । शल्यकर्म तुरत हो गया तो ठीक है अन्यथा इसके विस्थापन अतिशीघ्र दूर-दूर तक बिखर जाते हैं । विकिरण चिकित्सा अवश्य कुछ आशाप्रद देखी जाती है । शल्ककोशीय कर्कट का दूसरा नाम अधिचर्माभ कर्कट ( epidermoid carcinoma ) है तथा तीसरा नाम अधिच्छदार्बुद ( epithelioma ) है । पैठिक कोशीय कर्कट या कृन्तक विद्रधि ( basal-cell carcinoma or Rodent ulcer ) भी शल्ककोशीय अधिच्छद का ही एक प्रकार है । परन्तु यह For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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