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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७१४ विकृतिविज्ञान कर्कट के नैदानिक लक्षण पैंतीस वर्ष की आयु के पश्चात् कर्कटार्बुद उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ पाया जाता है । पैंतीस वर्ष से नीचे के स्त्री-पुरुषों को यह व्याधि बहुत कम लगती है । यद्यपि शैशव काल में भी यह मिल सकता है । कुछ शारीरिक अंगों में यह रोग अन्य अंगों की अपेक्षा शीघ्र लग सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि स्तन तथा महास्रोत में कर्कट पैंतीस वर्ष या उससे पूर्व भी पाया जा सकता है जब कि अष्ठीला ( पुरःस्थ ) ग्रन्थि, ओष्ट अथवा अन्न प्रणालिका में उसके बाद ही लगता है । गर्भाशय और स्तन कर्कट के मुख्य प्रभवस्थल होने के कारण स्त्रियाँ इस रोग से पुरुषों की अपेक्षा अधिक मरती हैं। पुरुषों में महास्रोत ( alimentary tract ) का कर्कट अधिकतर मिलता है । ग्रीन का कथन है कि स्त्री पुरुषों में इस दृष्टि से यह रोग बराबर ही देखा जाता है । भारतवर्ष में तो यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक मिलता है । प्राथमिक कर्कट अकेला ही उत्पन्न होता है । कभी-कभी आँतों में ये कई-कई एक साथ उत्पन्न हो जाते हैं । कर्कट बहुत द्रुत गति से उत्पन्न होकर समीपस्थ ऊतियों में फैलने लगता है साथ ही साथ लसीकाग्रन्थियों को उपसृष्ट करने लगता है और अन्त में विविध भागों में विस्थानित हो जाता है । यदि इसे उत्पन्न होते ही अन्यथा यह पुनः पुनः विविध स्थानों फाड़ कर धरातल पर आ जाता है और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्छेदित कर दिया जाय तो ठीक होता है पर प्रकट होता है । कर्कट प्रायः त्वचा को बहुत दुर्गन्धपूर्ण विद्रधि को जन्म देता है । विविध प्रकार के कर्कट दौष्ट्य ( malignancy ) की दृष्टि से विभिन्न स्वरूप रखते हैं अर्थात् कोई अधिक दुष्ट होता है तो कोई कम दुष्ट होता है । जो जितना ही अधिक दुष्ट कर्कट होता है वह उतनी फुरती से विस्थापन ( metastasis ) करने में समर्थ होता है और जो जितना ही कम दुष्ट होता है वह बहुत विलम्ब से 'उत्तरजात वृद्धियों का जनक बन पाता है । कोशीय दृष्टि से कर्कट विचार अब हम कोशाओं ( cells ) की दृष्टि से कर्कट सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करेंगे । कोशाओं की दृष्टि से कर्कटों को तीन श्रेणियों में प्रायः विभाजित कर सकते हैं : (१) शल्क - कोशीय कर्कट, (२) स्तम्भ कोशीय कर्कट, तथा (३) गोलाभ - कोशीय कर्कट । शल्ककोशीय कर्कट ( Squamous-celled Cancer ) ये अर्बुद त्वचा के धरातलों पर उत्पन्न हुआ करते हैं। ओष्ठ, वृषण, शिश्न तथा गुदा ये इनकी उत्पत्ति के सर्वसाधारण स्थल रहते हैं । वे श्लेष्मलकलाएँ जो स्तृतशल्कीय अधिच्छद ( stratified squamous epithelium) द्वारा आच्छादित रहती हैं वहाँ भी इस प्रकार का कर्कट उत्पन्न हो सकता है । मुख, ग्रसनी, स्वरयन्त्र, For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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