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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान इतस्ततः टूट फूट हो जाती है जो धीरे धीरे ठीक हो जाती है। ठीक होने में वे अन्य पित्र्यसूत्रों के टुकड़ों के साथ जुड़ जाते हैं जिसके कारण विचित्र प्रकार के पित्र्यसूत्र बन जाते हैं जिसके कारण कोशा को उसके पित्र्यसूत्रों का अभाव हो जाता है और कोशा खतम हो जाता है। आत्मविहास (autolytic degeneration ), मृद्वन ( softening ) तथा वृद्धि का अवरोध इन तीनों में से कोई भी अवस्था प्रविकिरण के कारण अर्बुदों में देखी जा सकती है। यह अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ कि दुष्ट कोशाओं पर ऋजु कोशाओं की अपेक्षा विकिरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। ऐसा कुछ भी नहीं होता पर कौन कोशा कितनी जल्दी अपना प्रगुणन करता है इस तथ्य का प्रविकिरण से पर्याप्त सम्बन्ध है क्योंकि जितना ही कोशा अधिक प्रगुणनशील होगा वह प्रविकिरण के लिए उतना ही अधिक अनुहृष होगा। प्रविकिरण का रक्तवहाओं पर प्रभाव जब किसी अर्बुद या ऋजु ऊति पर प्रविकिरण किया जाता है तो उसका सर्व प्रथम प्रभाव केशालों के घात ( capillary paralysis ) में होता है साथ ही बहुत तीव्र परमरक्तता वहाँ पर हो जाती है। इसके बाद वाहिनियों के अन्तश्छद में आघात होने के कारण उनमें घनास्रोत्कर्ष हो जाता है। कभी वाहिनियाँ फट तक जाती हैं। आगे चलकर उनमें अभिलोपी अन्तश्छदपाक हो जाता है। इस सबके कारण अर्बुद को प्राप्त होने वाला अपरिमित रक्तभण्डार बन्द हो जाता है जिसके कारण उसका तनाव घट जाता है और उसके विनाश का आरम्भ प्रकट होने लगता है। यहाँ हम रौस के एक रुग्ण का वर्णन करते हैं। जिसके शरीर में एक तेजातु सूची ( radium needle ) खो गई और वह ३ वर्ष तक हृत्पेशी में पड़ी रही। हृत्पेशी एक ऋजु ऊति थी और वह दुष्ट अति नहीं थी। यहाँ पर इस सूची के कारण ३ प्रकार के विक्षत बने। एक जो सूची के पूर्णतः समीप बना वह ऊतिनाशक ( necrotic ) था। दूसरा जो उसके चारों ओर बना वहाँ आंशिक ऊतिनाश ( partial necrosis ) हुई थी वहाँ वाहिनियों में क्षति होते हुए भी कुछ सजीव पेशी कोशा पाये गये तथा तीसरा सबसे बाहर के विक्षत में अतितीव अधिरक्तता तथा रक्तस्राव पाया गया। उपशम की प्रक्रिया जिस स्थान पर विकिरण हो चुका है वहाँ वह एक प्रक्षोभक का कार्य करता है और वहाँ व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है । यह प्रतिक्रिया अर्बुद के संधार में होती है तथा कोशोओं में भी होती है। कोशा आरम्भ में बहुन्यष्टि सितकोशा होता है जो बाद में लसीकोशाओं तथा उपसिप्रिय कोशाओं द्वारा बदल दिये जाते हैं । ये कोशा उस स्थान के संरक्षण का कार्य करने के लिए आते हैं। आगे चलकर और बहुत शीघ्र तन्तुकृत ( fibroblasts ) वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं जो प्रगुणन करने लगते हैं और एक सघन तन्तूत्कर्ष उत्पन्न कर देते हैं। मृत अति को दूर करने का कार्य महामति For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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