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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८६ विकृतिविज्ञान विद्वानों ने कोलतार की आगे खोज इसलिए की कि वे उसके अन्दर निहित कर्कटजनक पदार्थों का पता लगा सकें । कोलतार का प्रभागशः आसवन ( fractional distillation ) करने पर उन्हें एक उच्च कर्कटजनक पदार्थ धूपाग्नेन्य ( benzpyrene ) का ज्ञान हुआ । आगे रंगावलीक्षीय अंशन ( spectroscopic ana lysis ) करने पर अनेक धूपविश्रामों (benzanthracenes ) का ज्ञान हुआ और उसी श्रृंखला के अनेक ऐसे उदप्रांगारों का कृत्रिमतया निर्माण किया गया जो कर्कटजनक थे । ये पदार्थ ३ वर्गों में विभक्त किए जा सकते हैं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. धूपविक्षामी व्युत्पन्न ( benzanthracene derivatives ) जिनमें ५० प्रतिशत कर्कटजनक होते हैं । २. दर्शक्षा मेण्य ( phenanthrene ) जो कुछ कम कर्कटजनक होते हैं । तथा उपरोक्त दोनों वर्गों के बाहर धूपवलयिक (benozene ring) पदार्थ जिनमें एक या दो कर्कटजनक पदार्थ रहते हैं । ३. धूपेन्य के ४ वलय जिस पदार्थ में होते हैं वह कर्कटजनक होता है यही उपरोक तीनों वर्गों के पदार्थों के परीक्षण से ज्ञात हुआ है । चार वलय का मुख्य सम्बन्ध उनकी कर्कटकारक शक्ति की दृष्टि से सामान्य लक्षण है अन्यथा कुछ भी उनमें मिलता नहीं । पर यह वक्तव्य भी पूर्णतः सत्य मानकर इसलिए नहीं चल सकते क्योंकि विनीली रंगों में कार्य करने वाले श्रमिकों की बस्ति में कर्कटोत्पत्ति देखी जाती है जब कि विनीली में धूपेन्य के ४ वलय नहीं होते । वृजर और आर्मस्ट्रोंग ने कुत्तों और मूषकों में बस्तिगत कर्कट की उत्पत्ति क्रमशः आ - उत्तैरलतिक्ति ( Beta-naphthyla. mine ) जिसमें दो धूपेन्य वलय होते हैं, तथा २ शुक्तलतिक्ति तरस्विनी ( २-acetylamine fluorine ) खिलाकर कर चुके हैं इस दूसरे पदार्थ में एक भी धूपवलय ( benzene ring ) नहीं होता । ये सम्पूर्ण कर्कटजनक पदार्थ जल में अविद्राव्य हैं इनका तैलीय या स्नैहिक विलयन तैयार करना पड़ता है । कुछ दिन पूर्व एक पर्याप्त कर्कटोत्पादकशक्ति सम्पन्न 'जलविद्राव्य पदार्थ का पता लगा है जिसे द्विधूप विक्षामी तृणीय ( dibenzanthracene succinate ) कहते हैं । जब ये उदप्रांगार त्वचा पर प्रलिप्त कर दिये जाते हैं तो वे कर्कट (कैन्सर ) या अधिच्छदार्बुद ( इर्प थिलियोमा ) उत्पन्न करते हैं । पर यदि इन्हें त्वचा के नीचे अन्तःक्षिप्त कर दिया जावे तो इनके द्वारा संकटार्बुद ( सार्कोमा ) बनता है । ये दोनों प्रतिक्रियाएं अधिकांश कर्कटजनक पदार्थों के लिए सत्य उतरती हैं। अधिक सक्रिय संयोगों ( compounds ) के द्वारा अत्यल्प मात्रा में ही कर्कटोस्पादक शक्ति देखी जाती है । द्विधूपविक्षामी तृणीय की ही संकटाकार देखी गई है। कितने समय में किसी यह उस प्राणी की हृपता ( susceptibility ) तथा प्रयोग की परिस्थितियों पर निर्भर करता है । चूहे पर तारकोल पोतते रहने से ४-५ मास में कर्कट बन जाता है ००००४ मि. ग्रा. की मात्रा प्राणी में कर्कटोत्पत्ति होगी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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