SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 758
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ६८५ अर्थात् अधिक कालतक क्ष-किरणों का प्रयोग, अधिक कालतक नील लोहितातीत किरणों का प्रयोग, अथवा अधिक काल तक तेजातु का उपयोग। ___ जो लोग तेजोद्गर पदार्थों (radio-active) का प्रयोग करते हैं जैसे लड़कियों द्वारा तेजोद्गर पेण्ट का लेपन, घडी में रेडियम डायल या अन्य पदार्थ उनका तेजोद्दर अंश अस्थियों में प्रविष्ट हो जाता है जो कालान्तर में अस्थि के संकटार्बुद के रूप में प्रगट होता है। धमनियों का चित्र लेने के लिए थोरोट्रास्ट ( thorotrast ) का प्रयोग होता है यह भी एक तेजोद्गर पदार्थ है और दुष्टवृद्धि कर सकता है। सूर्य रश्मियों के निरन्तर प्रयोग का शरीर पर कर्कटजनक कोई परिणाम नहीं होता पर प्रायोगिक पारनीललोहित रश्मियों के प्रयोग के कारण शरीर में सान्द्रवों को उत्तेजना मिल जाती है जो कर्कटजनक उदप्रांगारों से मिलते जुलते होते हैं और कर्कटोत्पत्ति कर सकते हैं। रासायनिक अभिकर्ताओं में उदप्रांगार (हाइड्रोकार्बन्स) आते हैं । कोलतार का केशविरहित शशक त्वचा पर निरन्तर प्रयोग त्वकर्कटोत्पादक होता है। यह इस तथ्य को प्रकाश में लाता है कि कोलतार में कोई ऐसा पदार्थ अवश्य उपस्थित है जो कर्कटजनक होता है। आगे पैराफीन आइल, शेल आइल, खनिज तैल तथा एनीलीन (विनीली)का त्वचा पर प्रयोग करके सांपरीक्ष कर्कट उत्पन्न करके भी देख लिए गये हैं। कोलतार का केशशून्यस्थली पर प्रयोग करते चले जाने से सर्वप्रथम केशों का उत्पन्न होना बन्द हो जाता है। तत्पश्चात् अधिच्छदीय कोशाओं में विक्षोभजन्य अतिघटन (अतिचय) होने लगता है जिसके नीचे की अतियों में गोलकोशाओं की भरमार आरम्भ हो जाती है। ये परिवर्तन पूर्वकर्कटावस्था के उसी प्रकार मिलते हैं जिस प्रकार कर्कटोत्पत्ति के पूर्व मानवशरीर में दृष्टिगोचर होते हैं । इसके आगे यदि चार मास तक निरन्तर कोलतार का लेप चलता रहे तो अधित्वचा में चमकीलवत् स्थौल्य प्रगट होने लगता है। यदि लेपन इसी अवस्था में रोक दिया जावे तो एक साधारण चर्मकीलार्बुद या अंकुराबंद मात्र बनकर रह जावेगा। परन्तु यदि और आगे कोलतार का लेपन किया जाता रहा तो स्वकर्कट (skin cancer ) बने बिना नहीं रह सकता । तारकोल के लेपन में दो बातों पर अधिक ध्यान देना है, एक तो यह कि उसे कई मास तक निरन्तर प्रयोग में लाना चाहिए तथा दूसरे उसका गाढ़ा लेप न कर पतला-पतला लगाना चाहिए। परीक्षा करने पर यह भी ज्ञात हुआ है कि केवल अधिचर्म (epidermis) के ही कोशा इस लेप से प्रभावित नहीं होते अपि तु उसके नीचे की उतियाँ भी प्रभावग्रस्त हो जाती हैं। निचर्म ( dermis), प्रत्यस्थ कोशा, तान्तवऊति कोशा आदि भी क्षतिग्रस्त हो जाने से अधिच्छदीय कोशाओं में विशोणता उत्पन्न हो जाती है जो यह स्पष्ट करती है कि कर्कटोत्पत्ति के लिए प्रभावित कोशाओं के आन्तरिक चयापचय में एक बड़ा परिवर्तन भी उत्तरदायी होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy