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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६५० विकृतिविज्ञान स्वाभाविक शारीरिक कोशाओं के दुष्ट कोशाओं में परिणत होने के सम्बन्ध में विभिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों द्वारा पृथक् पृथक् कारण दिये गये हैं उनका विचार करने के पूर्व दुष्ट कोशाओं के सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट स्पष्ट तथ्य हैं उन्हें हम प्रकाशित करते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( क ) प्रकृत कोशा रूपी समाज में दुष्ट कोशा 'विद्रोही सदस्य' रूप में स्थित रहते हैं ये प्रारम्भ में अन्य कोशाओं के सहयोग से बढ़ते हुए अकस्मात् विरोध आरम्भ कर देते हैं और उनकी प्रवृत्ति रचनात्मक ( constructive ) से विनाशात्मक (destructive ) हो जाती है । (ख) शरीर में अधिच्छदीय कोशा, अन्तश्छदीय कोशा, तथा संयोजी ऊतिकोशा स्वभाव से ही शीघ्र प्रगुणित होने की क्षमता रखते हैं शेष शारीरिक कोशा धीरे-धीरे प्रगुणन करके अपनी कलेवर वृद्धि करते हैं। शीघ्र प्रगुणन कर्ता तीनों प्रकार के कोशाओं में ही दुष्टि प्रायः आरम्भ होती है शेष दुष्ट नहीं बना करते । ( ग ) दुष्टता का अर्थ शीघ्रातिशीघ्र अपनी कलेवर वृद्धि करना नहीं हुआ करता, अपितु स्वाभाविक वा प्रकृत कोशाओं के जीवन के मूल्य पर अपने को जीवित रखना यही दुष्ट कोशाओं की प्रवृत्ति रहती है । (घ) प्रकृत कोशा जितने स्वाभाविक रूप से एक दूसरे से संयोजित होकर अपनी ऊति का निर्माण करते हैं उतने ही अस्वाभाविक रूप में दुष्ट कोशा अपना अभिनय करते हैं जिसके कारण ये सरलता से अपने स्थान पर वृद्धि करते हैं और सरलतापूर्वक ही रक्तवहाओं और लसवहाओं द्वारा शरीर के अन्य भागों पहुँच जाते हैं । (ङ) जिन दूसरे स्थानों पर दुष्ट कोशा जाते हैं वे वहाँ वैसी ही दुष्ट वृद्धि करते हैं । यह इस प्रकार होता है जैसे कि खेत में बीज जैसा डाला जायगा वैसा ही फल उग आवेगा । (च) ऊपर हमने बतलाया है कि दुष्ट कोशा एक प्राणी से दूसरे में और दूसरे से तीसरे में सरलता से रोपित किए जा सकते हैं । परन्तु उसी ऊति के स्वाभाविक कोशाओं का ऐसा रोपण कदापि सम्भव नहीं हुआ करता । (छ) दुष्ट कोशा जिस ऊति में उत्पन्न होते हैं उसको अपने भार से दबा कर नष्ट करते हैं तथा प्रत्यक्ष ऊतिभक्षण भी देखा गया है जो बतलाता है कि वे स्वाभाविक कोशाओं के विनाश के लिए भी सजग तथा सन्नद्ध रहते हैं । अब हम आगे कर्कटोत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित वादों ( theories and hypotheses ) को लिखते हैं उसके पश्चात् कर्कट पर हुई खोजों के आधार पर प्राप्त तथ्यों को उपस्थित करेंगे वाल्डेयर तथा थी-वाल्डेयर और थीर्श ने यह मत व्यक्त किया है कि शरीर में अधिच्छद्रीय तथा संयोजी इन दो प्रकार की ऊतियों में एक प्रकार की समतोलस्थिति ( equilibrium ) रहा करती है। इसके कारण एक भी ऊति यदि अधिक प्रगुणित होने का यत्न करती है तो उसे दूसरी नियन्त्रित कर देती है । ज्यों For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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