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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६७ अर्बुदप्रकरण स्नैहिक विहास वर्णात्मक विहास चूर्णिय विहास श्लेषाम विहास काचर विहास श्लेष्माभ विहास ऊतिनाश या ऊतिमृत्यु इनके अतिरिक्त अर्बुद व्रणशोथ, वणन और रक्तस्राव के भी अधिष्ठान हो सकते हैं। अर्बुद की क्रियाशून्यता यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि अर्बुदिक कोशाओं द्वारा कोई भी कार्य सम्पादित नहीं होता परन्तु यह पूर्णतः सत्य है कि वे कोई भी उपयोगी क्रिया करने में असमर्थ होते हैं। जितना ही एक अर्बुद में वि-विभिन्नन अधिक होगा उतने ही कम अंशों में वह अपनी मातृऊति के कार्यों को सम्पादित करने में समर्थ हो सकेगा। जहाँ वि-विभिन्नन कम होता है वहाँ उनके द्वारा मातृऊति सरीखी क्रिया भी होती है पर इस क्रिया पर कोई नियन्त्रण नहीं होता इस कारण उसकी जितनी आवश्यकता होती है उससे बहुत अधिक देखी जा सकती है। यह क्रियाबाहुल्य अन्तःस्रावी अन्थियों के अर्बुदों में अधिकतर देखा जाता है। ___ इस दृष्टि से अर्बुदीय अभिनव वृद्धियों को हम कोशाओं की ऐसी बस्तियाँ कह सकते हैं जो कार्य न करके वृद्धि ही लक्ष्य बनाती हैं । यद्यपि स्वाभाविक ऊतियों में ठीक इसका विलोम देखने में आता है। इस प्रकार ये वृद्धियाँ वास्तविक परजीवी हैं जो अपने लिए आहार तो चाहती हैं पर वे कार्य कुछ नहीं करती। इन्हें हम क्रियाशून्य बह्वाकारी परजीवी हानिप्रद वृद्धियाँ कह कर पुकार सकते हैं। अर्बुदीय विस्तार साधारण अर्बुद अपना विस्तार करते समय किसी विशेष समस्या को उत्पन्न नहीं किया करते। वे बराबर और उत्तरोत्तर फैलते जाते हैं उनमें ज्यां-ज्यों भार बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उनके चारों ओर की ऊतियाँ दबती जाती हैं जो कालान्तर में साधारण अर्बुद के चारों ओर एक तान्तव प्रावर का निर्माण करने में समर्थ होती हैं । अर्बुदीय विस्तार की सबसे बड़ी समस्या दुष्ट अर्बुदों में देखी जाती है। इसका अध्ययन कर्कटार्बुद में भले प्रकार हो जाता है। अर्बुदीय विस्तार की ३ विधियाँ हैं :(अ) भरमार या अन्तराभरण, (आ) अन्तःशल्यता, तथा (इ) पुनःरोपण, भरमार-कर्कटार्बुदिक कोशा संयोजीऊतियों के भीतर के रिक्त अवकाशों में घुस जाते हैं तथा लसावहाओं पर आक्रमण करते हैं। इसका कारण यह है कि संयोजीऊतियों में इतनी प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं होती जितनी कि अधिच्छदीय उतियों में देखी जाती है। अर्बुद का जहाँ किनारा होता है वहाँ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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