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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ ६५१ मदुरापाद या कवकार्बुद इस रोग का कोलबुक ने सन् १८४६ ई० में सर्वप्रथम अवलोकन किया था इसे मदुरापाद नाम दिया जाता है। यह रोग भारत, रजतद्वीप (अमेरिका), कालद्वीप (अफ्रीका) तथा श्वेतद्वीप (यूरोप) में बहुधा मिलता है। . इस रोग के काला, श्वेत तथा रक्त तीन मुख्य प्रकार बतलाये जाते हैं। इनमें काला प्रकार बहुत अधिक होता है और वह एक कवकीय रोग ( fungus disease ) है। तथा लाल और श्वेत प्रकार मालावेत्राणु (streptothrix) नामक जीव के कारण माने जाते हैं। यह रोग प्रायः पाद (foot ) में प्रारम्भ होता है। प्रारम्भ होने के पूर्व आघात का इतिहास भी मिलता है । पाद के अतिरिक्त टाँग (leg), हाथ तथा जानु (knee) में भी हो सकता है पर ये प्रकार बहुत कम पाये जाते हैं। इस रोग के सर्वप्रथम विक्षत का स्वरूप एक लघु कठिन सूजन के रूप में होता है जिसके ऊपर त्वचा में एक छोटा फफोला हो जाता है। यह फफोला कुछ काल पश्चात् फूट जाता है और उसमें से थोड़ा पूयीय पदार्थ तथा कुछ कवककण निकलते हैं । समीप की ऊति कठिन हो जाती है और वैसी ही अनेक प्रन्थिकाएँ समीप के भागों में बन जाती हैं जिनमें छेद हो जाते हैं जिनका सम्बन्ध ऊपर त्वचा तक हो जाता है। धीरे-धीरे सम्पूर्ण पाद में अनेक फफोले और अनेक नाडीव्रण हो जाते हैं जो बहुत गहराई तक चले जाते हैं और जो पाद को बहुत फुला देते हैं, जो विक्षत बनते हैं उनका सम्बन्ध पाद की मृदु ऊतियों से तथा अस्थियों से भी होता है। रोगी स्थूल पाद से बिना अधिक अड़चन के चलता फिरता रहता है और उसे कोई विशेष शूल भी नहीं सताता। रोग बहुत जीर्ण होता है तथा इसकी प्रवृत्ति रोपित होने की बिल्कुल नहीं हुआ करती। अण्वीक्षण करने पर जो चित्र आता है वह एक कणार्बुद का चित्र होता है जिसके साथ-साथ ऊतियों और अस्थियों का विस्तृत विनाश देखा जाता है। विनष्ट हुए क्षेत्र की प्राचीरों में कवककण होते हैं तथा उनके साथ-साथ नवीन संयोजी ऊति के तन्तु तथा बहुत बड़ी संख्या में गोलकोशा, प्ररसकोशा, अन्तश्छदीयकोशा तथा कुछ महाकोशा देखने में आते हैं। किण्वजमुखपाक यह एक प्रकार के किण्व के कारण होने वाला रोग है। इस किण्व को श्वेत किण्व ( oidium albicans ) कहते हैं । इस किण्व से तन्तुओं की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ निकलती हैं जो गोलीय कोशाओं में समाप्त हो जाती हैं। ये कोशा एक या अधिक बीजाणु (spores) बनाते हैं। मुखपाक ( thrush) का वर्णन पीछे हो चुका है। यह सदैव जिह्वा से आरम्भ होता है फिर इसके सिध्म मुख की श्लेष्मल कला पर फैलते हैं। सिध्मों का वर्ण आधूसर श्वेत होता है और वे श्लेष्मलकला के For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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