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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान ऊपर जो लिखा गया है उससे तथा अन्य विद्वानों के मत से किरणकवक के द्वारा ४ प्रमुखस्थलों पर विक्षत बनते हैं। जिनमें एक स्थान सग्रीव शिर (head & neck) है। यहाँ ६० प्रतिशत विक्षत देखे जाते हैं। दूसरा स्थान जहाँ २० प्रतिशत विक्षत मिलते हैं शेषान्त्रक तथा उण्डुकपुच्छक्षेत्र है। तीसरा स्थान जहाँ १५ प्रतिशत विक्षत होते हैं फुफ्फुस है और चौथा क्षेत्र त्वचा है जहाँ ५ प्रतिशत विक्षत मिल सकते हैं । __ यदि अधोहनु में किरणकवक की क्रिया देखें तो पता लगेगा कि सर्वप्रथम एक ऊतियों का कठिन पुंज अधोहन पर बन जाता है इसके कारण ग्रीवा तक एक मांस वर्णीय काठिन्य देखा जाता है । कुछ काल पश्चात् यह पुंज छिन्न भिन्न हो जाता है और उसमें अनेक नाडीव्रण और विद्रधियाँ बन जाती हैं। नाडीव्रण त्वचा का अनेकों स्थानों पर भेदन करके चलनी के छेद जैसी आकृति बना देते हैं जो किरणकवक का एक महत्व का निर्देशक चिह्न है । अधोहनु पर स्थित संयोजी ऊति, पेशी और अस्थि सभी का उत्तरोत्तर विनाश होता चलता है। पूर्व के अन्दर सूक्ष्म पीतवर्णीय गन्धक के कण मिलते हैं जिनके द्वारा सरलतापूर्वक निदान किया जा सकता है। इन कणों को देखना उस समय परमावश्यक है जब कि विद्रधियों को खोला जा रहा हो क्योंकि बाद में वे दिखाई नहीं दिया करते। अण्वीक्षण करने पर किरणकवक के विक्षत ऐसे कणार्बुद (granuloma ) से मिलते हैं जिनमें पूयन भी हो रहा हो। जीर्ण व्रणशोथकारी कोशा जैसे तन्तुरुह तथा महाकोशा उसमें पाये जाते हैं। यदि पूयन अधिक हुआ तो स्थिति तीव्र व्रणशोथ के समान हो जाती है । इस रोग का औतिकीय स्वरूप कोई अधिक महत्त्व का नहीं हुआ करता । आन्त्रगत किरणकवक को अण्वीक्षण करने पर खूब तन्तूत्कर्ष मिलता है और तुद्र गोलकोशाओं की भरमार देखने को मिलती है। विक्षतों के परिणाह पर कभी कभी अन्तश्छदीय महाकोशा मिलते हैं। विक्षतों के केन्द्रों में छोटी छोटी विद्रधियाँ पाई जाती हैं जिनमें बहुन्यष्टिकोशा मिलते हैं तथा गन्धक के कण भी पाये जाते हैं। यदि किरणकवक रोग से पीडित उण्डुकपुच्छ को काट दिया जावे तो शस्त्रकर्म द्वारा बना व्रण थोड़े समय पश्चात् विघटित हो जाता है उससे पतला पूय निकलने लगता है और वह स्थान पूयोत्सर्गकारी कणनऊति का पुंजमात्र रह जाता है। यहीं से केशिकाभाजि (प्रतिहारिणी ) सिरा द्वारा उपसर्ग यकृत् को पहुँच सकता है जिसके कारण मधुमक्खियों के छत्ते जैसी अनेक छोटी छोटी विधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कभी कभी रक्तधारा द्वारा फुफ्फुस भी उपसष्ट हो जाया करता है। उण्डक (caecum) के उपसृष्ट होने के कारण औदरिक प्राचीर स्यूलित हो जाती है क्योंकि वहाँ शोफ तथा तन्तूत्कर्ष हो जाता है । श्लेष्मलकला व्रणित हो जाती है अनेक विद्रधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा अनेक नाडीव्रण ( fistulae ) भी बन जाते हैं । किरणकवक की विधियों पर शस्त्रकर्म करने से स्वचा तक रोग आ जाता है जिससे तन्तूत्कर्ष और जीर्ण विद्रधियाँ खूब देखी जाती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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