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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ २३ व्रणशोथ के प्रसार को रोकने के लिए शरीर में एक तन्विबन्ध ( fibrin barrier ) बनता है तथा विशिष्ट प्रसमूहि (specific agglutinins ) बनती हैं। इन सुरक्षात्मक कवचों को भी भेद कर कुछ जीवाणुप्रसार कार्य करते हैं । उदाहरण के लिए शोणांशी मालागोलाणु ( streptococcus haemolyticus ) इस तन्त्विबन्ध को जलाने वाली एक तन्त्र-अंशी ( fibrinolysin ) का उदासर्जन करता है । कुछ जीवाणु एक प्रसार - कारक ( spreading - factor ) का निर्माण करते हैं । इन कारकों में एक ऐसा विकर ( enzyme ) होता है जो ऊतियों और ऊतितरलों में प्राप्य एक अत्यन्त आलग ( viscid ) पदार्थ का चरिकाम्ल ( hyaluronic acid ) को विलीन कर देता है । इस विकर को काचरीएद ( hyaluronidase ) कहते हैं । शोथ का ग्रहण arrate का ग्रहण ( arrest ) दो प्रकार से होता है अ-नाशन ( destruction ) - व्रणशोथकर कारण के नष्ट होते ही ऊतियों के नष्टप्राय एवं क्षतिग्रस्त भाग पुनः स्वस्थावस्था के स्वरूप को प्राप्त करने के स्वभाव के अनुरूप आचरण करते हैं। नष्ट हुए कोशाओं को भक्षकोशा उठा ले जाते हैं और उनके स्थान पर नव कण ऊति ( granulation tissue ) के द्वारा निर्माण कार्य चल पड़ता है । आ- आटोपन ( encapsulation ) - जब प्रक्षोभक कारण को नष्ट करना सम्भव नहीं होता जैसे बाह्य द्रव्यों या सजीव कीटाणुओं में देखा जाता है तो उन्हें एक तान्तव ऊति के आटोप में चारों ओर से घेर कर एक दृढ़ आवरण बना दिया जाता है जिसमें उसकी सजीव समाधि हो जाती है । औतिकीय विभेद यद्यपि व्रणशोथ की प्रक्रिया एक ही प्रकार की होती है तथापि जब हम विभिन्न ऊतियों में व्रणशोथ का औतिकीय निदर्शन ( histological observation ) करते हैं तो उनमें बहुत विभेद देखने को मिलता है । इस विभेद के निम्न कारण हैं:--- प्रक्षोभक की प्रकृति - प्रक्षोभक की प्रकृति में कुछ वैभिन्य होता है । कोई तो सितकोशोत्कर्ष ( leucocytosis ) करता है जैसे पुंजगोलाणु, फुफ्फुसगोलाणु तथा मालागोलाणु इनके कारण पूयन होता है और व्रणशोथ के सब लक्षण प्रकट होते हैं तथा कोई सितकोशापकर्ष करता है जैसे यक्ष्मा का जीवाणु यह सितकोशाओं का नाश करता तथा उनकी क्रिया को मन्द कर देता है इस कारण इस रोग में व्रणशोथ के लक्षण पूरे पूरे प्रकट नहीं होते । इसमें व्रणशोथ की आमावस्था तो दिखती है पर पच्यमानावस्था तथा परिपक्वावस्था अपूर्ण रहती हैं । यद्यपि बार्डे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रारम्भ में सितकोशाओं द्वारा यच्मा जीवाणु का भक्षण होता हुआ देखा जाता है जो व्रणशोथ प्रतिक्रिया की अस्त्यात्मकता को इस रोग में सिद्ध करता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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