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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ विकृतिविज्ञान कर्ता विष की मात्रा मारक न हो कर उत्तेजक होती है। यहां कोशाओं का प्रगुणन (proliferation ) होता है। विशेष करके संयोजक ऊति के कोशा खूब बनते हैं साथ ही रक्तवाहिनियों के नये अन्तश्छदों का भी निर्माण होता है जो आगे चलकर रक्त की नवीन वाहिनियों का रूप धारण करते जाते हैं। उच्च भिन्न किए अधिच्छदीय कोशाओं ( highly differentiated epithelial cells ) पर विष का अत्यधिक प्रभाव यहां पर भी पड़ता है इसी कारण यहां संयोजक ऊति के कोशा उनका स्थान लेते हैं परन्तु इस भाग के आगे के क्षेत्र में ये कोशा भी खूब प्रगुणित होते हैं जिसके कारण उनकी उदासर्ग क्रिया की पर्याप्त अभिवृद्धि देखी जाती है। यदि केन्द्रस्थ विष की मात्रा जीवाणुओं की उग्रता से बढ़ती चली जाती है तो ये विविध क्षेत्र भी विस्तृत होते जाते हैं अन्यथा ये एक स्थान विशेष पर ही रह जाते हैं। व्रणशोथ का प्रसार प्रायशः व्रणशोथ एक स्थान या एक अतिविशेष में ही देखा जाता है। पर जब वह परजीवियों ( parasites) के कारण उत्पन्न होता है तो उसके क्षेत्र के विस्तृत होने की पर्याप्त सम्भावना रहती है। नैदानिकदृष्टि से व्रणशोथ के प्रसार में ऊतिसातत्य ( continuity of tissue ) लसीकावाहिनियां (lymphatics ), अथवा रक्तवाहिनियाँ विशेष उत्तरदायी होते हैं। __सूक्ष्म जीव पहले एक स्थान पर अवस्थित होते हैं फिर वे उस ओर शीघ्र बढ़ते हैं जहां उन्हें किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ता, कभी कभी उन्हें वाहिनियों के उदासर्ग कुछ दूर तक घसीट ले जाते हैं, कभी कभी लस-धारा (lymph-stream) के प्रवाह से भी वे दूर तक फैल जाते हैं, कभी कभी सितकोशा उन्हें उदरस्थ करके अन्य अन्य स्थानों में पहुंचा देते हैं। इन सब कारणों में ऊतिसातत्य की ही प्रधानता देखी जाती है। . ऊति-सातत्य के अतिरिक्त व्रणशोथ के प्रसार का एक और साधन है-लसवहाएँ। प्रारम्भिक स्थल से लसवहा द्वारा व्रणशोथ का कारक चलता है और जिस लसीकाग्रन्थि में वह वाहिनी समाप्त होती है उसमें प्रवेश कर जाता है और उस ग्रन्थि में व्रणशोथ उत्पन्न हो जाता है जिसे लसीकाग्रन्थिशोथ (lymphangitis) कहते हैं। रक्तवाहिनियाँ व्रणशोथ के प्रसार करने के लिए तृतीय साधन का काम करती हैं । जीवाणुओं को रक्तवाहिनियाँ लेकर चल देती हैं जब ये जीव केशालों के समीप पहुँचते हैं तो वहां रुक जाते हैं तथा वहाँ व्रणशोथ उत्पन्न कर देते हैं। सुदूरस्थ भागों तक व्रणशोथ के प्रसार का मुख्य कारण यही वाहिनियाँ हैं। इस प्रकार प्राप्त व्रणशोथ को हम द्वितायक या उत्तरजात व्रणशोथ ( secondary inflammation) कहते हैं। ऐसा प्रायशः पूयरक्तता (pyaemia) नामक व्याधि में विविध स्थानों पर देखा जाता है तथा कनफेड ( mumps ) में तब देखा जाता है जब अण्डकोश या बीजकोश शोथग्रस्त हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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