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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ३२६ भी विहृष्ट तन्तु नहीं मिलता उसका कारण यह है कि यह द्वितीय श्रेणी ( second order ) के नाडीकन्दाणुओं द्वारा बनती है क्योंकि इसके तन्तुओं का जन्म पश्चभंग के कोशाओं से होता है। पेशीगतिबोध ( muscle sense ) जिससे कि स्थिति का बोध होता है पश्चस्तम्भ के तन्तुओं द्वारा ऊपर को जाता है। इसी कारण पश्वस्तम्भ में विक्षत होने के कारण स्थिति संवेदना समाप्त हो जाती है । इसका प्रमाण यह है कि जब रोगी के नेत्र बन्द कर दिये जाते हैं तो उसे यह पता ही नहीं रहता कि उसके पैर कहाँ रखे हैं या वह किस स्थिति में किया जा रहा है। आँख बन्द करके पैर चिपटा कर यदि रोगी को खड़ा कर दिया जावे तो वह लड़खड़ाने लगता है इस अस्थिरता को रौम्बर्जीयता ( Rombergism ) कहते हैं। इस अस्थिरता का एक कारण क्लार्कस्तम्भ के कोशाओं को प्रेरणाओं का न पहुँचना भी हो सकता है जिसके कारण क्लार्के. स्तम्भ से पार्शन्तिका तन्त्रिका ( direct cerebellar tract ) को भी कोई प्रेरणा ( impulse ) नहीं पहुँच पाती । आवेप बोध ( vibration sense ) के तन्तु भी पश्वस्तम्भ द्वारा जाते हैं वह भी नष्ट हो जाता है इसके कारण रोगी एक संसरण द्विशाख ( tuning fork ) के आवेपों को जब वह कुछ हिला कर जंघास्थि के ऊपर रखी जाती है नहीं पहचान पाता। समन्वयात्मक वकार-समन्वय ( coordination ) जिसे सहकार भी कहते हैं जब विकारग्रस्त होता है तब रोगी को पेशीगतिबोध नहीं होता। इसके कारण रोगी की एक विचित्र चाल ( gait ) हो जाती है। इसी चाल के कारण इस रोग को प्रचलनासंगति नाम दिया गया है। जिसका अर्थ है चलने में असहकारिता या असंगति । रोगी जब चलता है तो उसके दोनों पैरों के मध्य में अधिक स्थान रहता है प्रचलन के सम्बन्ध की उसकी प्रत्येक क्रिया अधिक परिश्रमपूर्वक की हुई होती है क्योंकि क्रियाधिक्य को रोकने वाली संवेदनाएँ उसका साथ नहीं देतीं। वह अपने पैर को बहुत ऊँचा उठाता है और झटके के साथ उसे भूमि पर छोड़ता है मानो कि रबर की मोहर से छपाई पैर के भूमि पर पटकने से की जा रही हो ( stamping gait )। यदि साथ में ग्रीवा का भाग भी प्रभावित हो तो नासा-अंगुलि परीक्षा की जाने पर रोगी नेत्र बन्द करके अंगुलि से नासा को छूने में असमर्थ रहता है। प्रतिक्षेपात्मक विकार-प्रतिक्षेपात्मक विकारों का कारण है उन हस्वतन्तुओं का प्रभावित होना जो अग्रशृङ्ग के कोशाओं के चारों ओर अन्तर्मेल (anasto. mosis ) करते हैं। इन तन्तुओं के विनाश से प्रतिक्षेपचाप ( reflex-arc ) टूट जाता है और गम्भीर प्रतिक्षेप नष्ट हो जाते हैं। यदि सर्वप्रथम सुषुम्ना के निम्नतम तन्तु प्रभावित हुए तो पाणिस्थ कण्डराक्षेप (achilles jerk ) नष्ट हो जाता है परन्तु जानुक्षेप ( knee jerk ) बना रहता है। जानुक्षेप तभी तक रहता है जब तक कि कटिप्रदेश के तृतीय और चतुर्थ खण्ड ठीक रहते हैं। पाणिस्थ कण्डराक्षेप For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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