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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान रक्त को पका देता है। पित्त धीरे धीरे अभिवृद्ध होता है । इसका प्रमाण धीरे धीरे व्रण शोथ में ऊष्माभिवृद्धि होना है जो प्रत्यक्ष है। वात उसके वश में रहती ही है इसी से शूल रहता है, कफ भी वश में रहता है तभी तो जलीयांश प्रचुर मात्रा में क्षतिग्रस्त स्थान पर संचित होजाता है और सितकोशाओं का भी जमाव जमने लगता है तथा रक्त का ही परिपाक होता है यह भी ध्रुव सत्य है क्योंकि रक्त का ही जलीयांश उसीके सितकोशा और लाल कण ऊति क्षेत्र में फैल कर पूय का रूप धारण कर लेते हैं। दोष वात, पित्त और कफ तथा दूण्य रक्त इस प्रकार चार ही व्रणशोथ के कारण हैं । अष्टाङ्गहृदयकार ने सुश्रुतीय शास्त्रीय मत का समर्थन उसके अशास्त्रिय मत के साथ सामञ्जस्य बैठाते हुए किया है। इसने वात को शूल का कारण, दाह पित्त के कारण तथा शोथ कफ के कारण कहा है तथा रक्त के कारण लाली और पाक बतलाया है। इसने पूय का नाम नहीं लिया। कफ को शोफ का कारण कह दिया है। सम्पूर्ण क्लेदांश कफ कहलाता है जलाधिक्य के विना सूजन हो नहीं सकती अतः शोफ का कारण कफ कहना अयथार्थ नहीं है । रक्ताधिक्य से लाली और पाक दोनों बतलाना भी असङ्गत नहीं है। कश्यप ने शोफ का मूल कारण वात को बतलाया है। शोफ का प्रारम्भ शूल होता है तथा आगन्तु शोथ जिसे शोफ कहते हैं जैसा कि पहले कह चुके हैं उसमें भी वात धर्म का प्राबल्य होता है तत्पश्चात् अन्य दोषों का सम्बन्ध आता है अतः शोफ का मूल कारण वात दोष को बतलाना पूर्णतः न्याय्य है । फिर अन्तिम कारण में तीनों दोषों को समाविष्ट करने का कोई विरोध आया ही नहीं है। कश्यप ने शोथ का अधिष्ठान त्वचा, रक्त, मांस और मेदस् को गिनाया है जो आधुनिक दृष्टिविन्दु से भी सङ्गत है। माधवकर ने जो वाक्य संग्रह किया है वह उपरोक्त दृष्टिकोणों का समर्थन ही करता है। ___ सारांश यह निकला कि व्रणशोथ का प्रारम्भ वात दोष के सकारण प्रकुपित होने से होता है । कहीं भी क्षत या प्रहार हुआ नहीं कि वहां वात प्रकोप होगया जिसका प्रमाण वहां पर तीव्र शूल होता है। इसी काल में धीरे धीरे पित्त बढ़ने लगता है जो केशालों की अन्तश्छद का भक्षण करता हुआ वात को अपने आश्रित करके कफ को प्राचीरों में से ऊतियों में भेजता रहता है अधिक कफ के संचय से शोफ हो जाता है इधर पित्त का अभिवर्द्धन विशेष होने से ओष चोष दाह पाक का कार्य बढ़ जाता है। कफाधिक्य के कारण सितकोशाओं और ऊतिस्थ जीवाणुओं में परस्पर संघर्ष चल पड़ता है जिससे पूय की उत्पत्ति होने लगती है । जब पर्याप्त पूय बन जाता है तो वात का प्रकोप घट जाता है जिससे शूल कम हो जाता है कफ का प्रकोप शान्त हो जाता है तो शोफ और अधिक बढ़ता नहीं बल्कि घटने लगता है जिससे त्वचा पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। पित्त के प्रकोप की कमी से वहां दाह नहीं रहता। यह ही व्रण की For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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