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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणशोथ या शोफ व्रणशोथ-दोष तथा दृष्य वातादृते नास्ति रुजा न पाकः, पित्तादृते नास्ति कफाच्च पूयः । तस्मात् समस्ताः परिपाककाले पचन्ति शोफांस्त्रय एव दोषाः॥ कालान्तरेणाभ्युदितं तु पित्तं कृत्वा वशे वातकफौ प्रसह्य । पचत्यतः शोणितमेव पाको मतोऽपरेषां विदुषां द्वितीयः ॥ (सु. सू. अ. १७-११-१२) शूलं नर्तेऽनिलाहाहः पित्ताच्छोफः कफोदयात् । रागो रक्ताच पाकः स्यादतो दोषैः सशोणितैः ।। (अ. हृ. सू. २९-६) मारुतः सर्वशोफानां मूलहेतुरुदाहृतः। यथा च पित्तं दाहस्य, शैत्यस्य च यथा कफः॥ त्वग्रक्तमांसमेदांसि शोथोऽधिष्ठाय वर्धते । (का. सं. खि. अ. १७-२६) नर्तेऽनिलाद्रग्न विना च पित्तं पाकः कर्फ चापि विना न पूयः। तस्माद्धि सर्वान् परिपाककाले पचन्ति शोऑस्त्रय एव दोषाः ।। (मा. नि. ४१-१२) व्रणशोथ की आमावस्था से पक्कावस्था तक पहुँचने में दोष किस प्रकार भाग लेते हैं इसे जानने के लिए ऊपर के उद्धरण पर्याप्त सहायता करेंगे। इन उद्धरणों में प्रथम सुश्रुत का है । उसका कथन है कि इस सम्बन्ध में दो मत विद्यमान हैं। एक शास्त्रीय ( official) मत यह है कि व्रणशोथ काल में जो शूल होता है उसका कारण है वात, उसमें जो पाक और दाह चलता रहता है उसका हेतु है पित्त तथा जो उसमें पूय बनता है वह कफ के कारण बनता है। शूल, दाह और पूय कमशः वात, पित्त और कफ नामक दोषों के प्रसाद हैं अतः परिपाक काल को लाने में तीनों दोष ही सहायक होते हैं। वातनाडियाँ विशेषकर संज्ञावह नाडियों (sensory nerves) के अनों पर तनाव होना ही शूल का मुख्य हेतु हम पहले ही लिख चुके हैं। आयुर्वेद की वात-कल्पना यहाँ . यथार्थ बैठती है । नाडियों के द्वारा गमनशील शक्तिविशेष ही वात है और उसका प्रक्षोभ ही शूल का कारण है। दाह या पाक के समय जो अग्नि सी जलती है उसका अर्थ है रक्त नामक दृष्य में उपस्थित पित्त तथा आत्मपाची उदासर्ग ( autolytic ferments ) ये जीवाणुओं के शरीर को उतियों के कोशाओं तथा अन्य पदार्थों का पाचन करते हैं जिससे ऊष्मा बढ़ती है और उसका बोध होता है यह पित्त के कारण है । कफ के कारण पूय होता है । पूय में प्रमुख पदार्थ पुरुन्यष्टि तथा अन्य सितकोशा हैं। इसका अर्थ तो यह है कि ये सितकोशा श्वेत और स्निग्ध और जलमय होने के कारण आयुर्वेदीय कफ के साधारण स्वरूप को पूर्णतः स्पष्ट कर देते हैं । अतः कफ को जलीयांश सहित सितकोशाओं के रूप में यदि हम मान लेते हैं तो हमारा काम ज्यों का त्यों चल जाता है तथा आधुनिक और प्राचीन वर्णनों में बहुत कम अन्तर रह जाता है। तीनों दोषों के कारण ही व्रणशोथ का परिपाक होता है। चाहे व्रणशोथ का प्रारम्भ किसी एक दोष से ही हो परन्तु उसकी परिपक्वावस्था तक पहुँचने के लिए तीनों दोषों का ही उत्तरदायित्त्व होता है। एक दूसरे अशास्त्रीय ( unofficial ) मत का भी उल्लेख सुश्रुत ने किया है। वह यह कि कालान्तर में पित्त प्रवृद्ध हो कर वात और कफ को अपने वश में करके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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