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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ विकृतिविज्ञान फिरंगाबंद ( syphilomata or gummata) आपीत श्वेत वर्ण की ईषस्कठिन (moderately firm ) ग्रन्थिकाएँ ( nodules ) होती हैं। इन्हें हम फिरंगार्बुदिका भी कह सकते हैं। ये छोटी मटर से लेकर सुपारी या अखरोट तक बड़े आकार की हुआ करती हैं। फिरंगाबूंदों के चारों ओर एक पारभासक तान्तव अति कटिबन्ध होता है जो प्रावर सरीखा लगता है। यह कटिबन्ध समीपस्थ ऊतियों द्वारा इतना कसकर जकड़ा रहता है कि समूचे फिरंगार्बद का निकालना (enucleation ) अत्यन्त कठिन हो जाता है। फिरंगार्बुद की बहीरेखा विषम होती है। उसका कारण असंख्य तान्तव सूत्रों का इतस्ततः फैलना है। सहज फिरंगियों के यकृत् में फिरंगार्बुद बहुत शीघ्र बन जाते हैं उनको देखने पर उनका वर्ण आरक्त श्वेत (reddish white ) दीख पड़ता है । इस लाली का कारण उन तक रक्त की अधिक पहुँच होना माना जाता है। वे बहुत अधिक मृदु और रक्तान्वित देखे जाते हैं। पर अधिक आयु पर तृतीयावस्था के कारण उत्पन्न फिरंगार्बुद अतिविस्तृत विहासात्मक परिवर्तनों के कारण वे पारान्ध, पीत तथा स्नेहयुक्त अधिक देखे जाते हैं। बाद में जो प्रचूषण और तन्तूत्कर्ष होता है उसके कारण अंग में खूब व्रणवस्तु बनती है। वास्तव में देखा जावे तो फिरंगार्बुद मृत उति के वे क्षेत्र होते हैं जिनके चारों ओर एक व्रणशोथक्रिया चलती रहती है। फिरंगादों के निर्माण में दो बातें विशेष करके भाग लेती हैं। उनमें एक बात यह है कि अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाक के कारण एक क्षेत्र का जहाँ फिरंगार्बुद बनता है रक्तविहीन कर देना है। दूसरी बात यह है कि सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति के कारण उस क्षेत्र में एक अनूर्जिक अनुहृषता ( allergic sensitisation ) उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण वहाँ एक उतिनाशक व्रणशोथात्मक विक्षत बन जाता है। यदि स्मरण हो तो पाठक यक्ष्मिकाओं के निर्माण के समय भी जीवाणुओं के प्रति शरीर की अनूर्जिक अनुहपता को पढ़ चुके होंगे। यह अनुहृषता ही दोनों में सामान्य होने के कारण फिरंगार्बुद तथा यदिमकाओं की रचना में समानता देखी जाती है। फिरंगार्बुद सब प्रकार से यदिमकाओं के सदृश ही हो सो बात भी नहीं है । जहाँ यक्ष्मिकाएँ एक साथ कई कई होती हैं फिरंगार्बुद अकेला ही रहता है। गम्भीर शरीरावयवों के फिरंगार्बुदों में तरलन होकर नाडीव्रण बन जाया करते हैं तथा उपरिष्ठ अवयवों के फिरंगार्बुद व्रणीभूत हो जाते हैं तथा उन पर अन्य पूयजनक जीवाणुओं का उपसर्ग भी लग जाता है। प्रारम्भ में फिरंगाबंद और यक्ष्मिका दोनों का औतिकीय चित्र एक सा ही रहने के कारण फिरंगार्बुद को किलाटीय यक्ष्माम फिरंगाबंद ( caseous tuberculoid gumma ) तक कहा जाता है । सुकुन्तलाणुओं से संरक्षण का कार्य शरीर में यक्ष्मादण्डाणुओं से संरक्षण की भाँति, जालकान्तश्छदीय संस्थान का है। इसी कारण दानों स्थानों पर अनूजिक ऊतिनाश एक सा ही होता है। इसी कारण औतिकीय चित्र दोनों For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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