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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८८ विकृतिविज्ञान फिरंग न कहकर उपदंश बतला देते हैं जो पूर्णतः असंगत है। दोनों दो विभिन्न वर्ग के जीवाणुओं से उत्पन्न दो पृथक् रोग हैं । डा० घाणेकर ने उपदंशजवण (soft chancre ) तथा फिरंगजत्रण ( hard chancre ) के व्यच्छेदक लक्षणों को प्रकट करने वाला एक कोष्ठक अपनी सुश्रुत संहिता की टीका में दिया है जो निम्न है :फिरंगज व्रण :― उपदंशज व्रण १ - मैथुन के पश्चात् तीसरे या चौथे दिन 1 - मैथुन के पश्चात् प्रायः तीसरे सप्ताह में संदेश उत्पन्न होता है । संदेश उत्पन्न होता है । २- साधारणतया अनेक संदेश होते हैं । ३ - टटोलने से संदेश मृदु होता है । २- साधारणतया एक ही संदेश होता है । ३- तरुणास्थि (कास्थि ) के समान कठिन प्रतीत होता है । ४- दाह नहीं होता तथा उससे लसिका के ४ - उसमें दाह होता है तथा प्रचुर पूय, रक्तलसिका इत्यादि बहते हैं । ५- व्रण के किनारे साफ कटे हुए भीतर से कुछ पोले और व्रण के तल से कुछ ऊँचे होते हैं । ६ - अत्यन्त पीडायुक्त । ७ - सूक्ष्मदर्शक से परीक्षा करने पर ड्यूक्रे का दण्डाणु (bacillus Ducrey ) मिलता है । ८- व्रणस्राव अन्य स्थान पर त्वचा में सुई से प्रविष्ट करने पर समान व्रण पैदा होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिरिक्त कुछ भी नहीं निकलता । ५ - किनारे न साफ होते हैं, न पोले होते हैं, न तल से ऊँचे होते हैं । ६- पीडा रहित । ७- ट्रिपोनेमा पैलीडम ( सुकुन्तलाणु ) नामक पेचदार जीवाणु मिलता है । ८- स्राव प्रविष्ट करने से समान व्रण प्रायः पैदा नहीं होता है । ९ - व्रण की ओर की जंघासे की ग्रंथियाँ फूलती हैं वे मृदु पकने वाली और अत्यन्त वेदनायुक्त होती हैं । ९ - दोनों ओर की ग्रंथियाँ फूलती हैं वे कठिन, न पकने वाली और वेदना रहित होती हैं । १० - चिकित्सा न करने से व्रण अधिक बढ़ कर स्थानिक ऊतियों का नाश होता है परन्तु सार्वदेहिक लक्षण प्रायः नहीं उत्पन्न होते । १० - चिकित्सा न करने से भी स्थानिक विकृति नहीं बढ़ती, परन्तु विष सर्वशरीर में फैल कर सार्वदेहिक लक्षण उत्पन्न होते हैं । उपरोक्त कोष्ठक जानने वाले उपदंश और फिरंग को एक समझने की भूल नहीं करेंगे ऐसा अपना विश्वास है । कभी-कभी उपदंश और फिरंग दोनों का उपसर्ग साथ साथ भी हो सकता है अतः वहां बहुत सावधानी के साथ निदान करना पड़ता है । प्राथमिक उपस्थव्रण प्रकट होने के १० दिन पश्चात् उपसर्ग प्रादेशिक लसीकाग्रन्थियों में पहुँच जाता है जिसके कारण वे ग्रन्थियाँ सूज जाती हैं तथा उनका स्पर्श न करने से वंक्षण में क्षुद्र गोलिकाओं जैसी प्रतीत होती हैं । ये धीरे-धीरे बढ़ती हैं, For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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