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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ५८७ ( शैङ्कर ) को ढंके हुए रहता है वह व्रणित हो जाता है तथा जीवित अधिकोशाओं की द्वीपिकाएँ व्रणशोथात्मक ग्रन्थिका के उपरिष्ठ भाग में देखी जा सकती हैं। फिरंग का प्राथमिक संदेश या व्रण उपसर्ग के पहले हफ्ते से लेकर तीसरे सप्ताह पर्यन्त बाह्य उपस्थ ( external genitals ) पर अधिकतर प्रकट हो जाता है । 'उपस्थ के अतिरिक्त यह अधरोष्ठ पर देखा जा सकता है, जिह्वा पर मिल सकता है, गलतोरणिकाओं पर देखा जा सकता है अथवा अंगुलियों पर भी प्रकट हो सकता है । स्त्रियों में यह कभी-कभी गर्भाशय के बाह्यद्वार के समीप हो सकता है जो योनि के अन्दर दूर पर स्थित होने के कारण देखने में नहीं भी आता और उपसृष्ट स्त्री अनुपसृष्ट लगती है । यह उपस्थव्रण प्रायशः एकल ( single ) होता है पर एकाधिक व्रणों के उदाहरण भी न मिलते हों ऐसा नहीं है । पुरुषों में प्रायः एक उपस्थव्रण देखा जाता है जब कि स्त्रियों में कई भी मिल सकते हैं । स्त्रियों में यह व्रण भगोष्ठ, भगाञ्जलिका ( fourchette ), भगशिश्निका अथवा भूत्रद्वार पर कहीं भी मिल सकते हैं। चुम्बन, धूम्रपानादि कारणों से ही उपस्थव्रण ( primary chancre ) मुख, ओष्ठ, जिह्वा, नेत्रवर्म, स्तन, अंगुलियाँ आदि पर होते हैं । इन स्थानों पर उपस्थ की अपेक्षा व्रण कुछ अधिक बड़े होते हैं । व्रणन कार्य ओष्ठ या जिह्वा पर बहुत शीघ्र प्रारम्भ हो जाता है । अंगुलियों के अन्तिम पर्वो के व्रण अधिक वेदनाकारक देखे जाते हैं । शिश्नच्छदा श्लेष्मलकला के व्रण अत्यन्त कठिन होते हैं । इस कला के द्वार पर जो व्रण बनता है वह द्वार के चारों ओर वलयाकार होकर फैलता है । एक जीवाणु का नाम है शोणप्रियाणु मृदूपस्थत्रण ( Haemophylous of Duorey ) इस जीवाणु के कारण जो रोग होता है उसे उपदंश कहा जाता है जो कि एक रतिजन्यरोग ( Venereal Disease ) है । उसका निदान इस प्रकार है :हस्ताभिघातान्नखदन्तपातादधावनाद्रत्यतिसेवनाद्वा । योनिप्रदोषाच्च भवन्ति शिश्ने पत्रोपदंशा विविधापचारैः ॥ हस्तमैथुन के कारण हाथ या नख द्वारा चोट लगने से, मुखमैथुन करने के कारण दाँत लग जाने से न धोने से, अत्यधिक मैथुन करने से, योनि के दोष से या अन्य उपचारों (ब्रह्मचारिणीगमन, गुदमैथुन, चतुष्पदीगमनादि ) के कारण ५ प्रकार के उपदेश हो जाते हैं । उपदंश के कारण भी व्रण होते हैं इन्हें मृदूपस्थव्रण ( soft chancre ) कहते हैं मेसन्धौ व्रगाः केचित् केचित्सर्वाश्रयाः स्मृताः । कुलत्थाकृतयः केचित् केचिन्मुद्गदलोपमाः ॥ रुजादाहपरीताश्च तृष्णास्तोदसमन्विताः । शीघ्रं केचिद्विसर्पन्ति शनैः केचित्तथाऽपरे । स्त्रीणां पुंसां च जायन्ते उपदंशाः सुदारुणाः ॥ आयुर्वेद ने उपदंशज व्रणों का जो ऊपर के सूत्रों में चित्रण किया है वह बतलाता है कि वे इसको भली प्रकार जानते थे तथा भावप्रकाशकार ने सर्वप्रथम उपदंश के अतिरिक्त फिरंग नामक रोग का उल्लेख किया है । कभी-कभी वैद्यगण सिफिलिस को For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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