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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय फिरङ्ग प्रकरण अब हम इस अध्याय में फिरङ्ग ( syphilis ) तथा फिरंगसम ( spirochaetal ) उपसर्गों पर एक दृष्टि डालेंगे ताकि शारीरिक विकृति के एक और परमसहायक से पाठकों का ठीक-ठीक परिचय हो जावे। ___हमने फिरंग शब्द का उपयोग इसलिए किया है कि आज से अनेकों वर्ष पूर्व इसी नाम से भावमिश्र ने सर्वप्रथम इस रोग का वर्णन किया है। फिरंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वे लिखते हैं: फिरंगसंज्ञके देशे बाहुल्येनैव यद्भवेत् । तस्माफिरंग इत्युक्तो व्याधिर्व्याधिविशारदैः॥ ___ अर्थात् 'फिरंग संज्ञक देश में जो विशेषरूप से होता है इसलिए योग्य वैद्य इसे फिरंग इस नाम से पुकारते हैं।' इस वाक्य का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि इस रोग का नामकरण भावमिश्र ने किया है। इससे यही पता चलता है कि लोक में यह 'फिरङ्ग' इस नाम से प्रचलित रहता आया है उसी का अनुसरण करते हुए भावमिश्र ने भी उसका उपयोग किया है। भावमिश्र ने इस रोग के जो लक्षण दिये हैं वे इसी रोग में मिलते हैं, इसे उसने विस्फोटकाधिकार के उपरान्त लिखा है, उसने उपदंश नामक व्याधि का पृथक् से वर्णन कर दिया है, इसकी चिकित्सा में पारद के एक यौगिक रसकपूर का प्रयोग किया है इन सबको देखते हुए हम इस रोग को जिसे सिफिलिस कह कर प्रतीचीन पुकारते हैं फिरंग नाम द्वारा ही प्रकट करेंगे। ___ जो लोग उपदंश और फिरंग को एक मानते हैं वे दोनों के विकृत शारीर को जानने से मुख मोड़ते हैं। उपदंश शोणित प्रिय वर्ग के जीवाणु से होने वाला रोग है जिसे मृदुसंदंश बा साफ्ट शैकर ( soft chanere ) या शैक्रोयड ( chanoroid ) कहा जाता है । यह एक स्थानिक रोग है जो पुरुष की मेढू और स्त्री की योनि तक सीमित रहता है। फिरंग एक अति व्यापक रोग है जो शरीर के विविध भागों में अपना प्रभाव जमाता है तथा जो कुन्तलाणु ( spirochaeta ) वर्ग के जीवाणुओं द्वारा हुआ करता है । उपदंश की सम्पूर्ण चिकित्सा स्थानिक है या वह पारदमल्लादिविरहित होती है इतना जान लेने पर फिरंग और उपदंश में भेद न जानना अतीव भ्रामक हो जा सकता है। फिरंग नाम से जो देश पूर्वकाल में अपने देश में पुकारा जाता था वह सम्भवतः पुर्तगाल देश रहा होगा। पुर्तगालियों के द्वारा ही यह रोग अपने देश में आया है। ऐसा माना जाता है कि जब कोलम्बस सन् १४९२ ई० में भारत की खोज करने के For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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