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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५६६ हो जाती हैं तथा उनका सुषिरक संकीर्ण होता चला जाता है जिसका कारण यह है कि उसके उपश्लेष्मलस्तर में यदिमकाओं का निर्माण तथा प्राचीर में तन्तूरकर्ष होने लगता है । धीरे धीरे श्लेष्मलकला व्रणीभूत हो सकती है तथा गवीनीसंकोच ( stricture of the ureter ) हो सकता है 1 बस्ति (bladder) में उपसर्ग प्रायः वृक्कों द्वारा पहुँचता है पर कभी-कभी यह कहना कठिन हो जाता है कि उपसर्ग का प्राथमिक स्थान वृक्क है या बस्ति । जहाँ rait बस्ति में खुलती है उस द्वार पर ही सर्वप्रथम उपसर्ग आरम्भ हो सकता है। जिस वृक्क में यमोपसर्ग होता है उसी की गवीनी के द्वार पर ही बस्ति में विक्षत देखा जाता है वहाँ से यह बस्स्यन्तरीय त्रिकोण ( trigone ) की उपश्लेष्मलकला के नीचे फैलता है जहाँ से फिर बस्तिप्राचीर तक पहुँच जाता है । यचमोपसर्ग के कारण उपसृष्ट बस्ति होने पर बार-बार मूत्र त्याग करने की इच्छा का होना और मूत्रोत्सर्ग के समय कष्ट का होना ये दो लक्षण विशेषतया देखे जाते हैं ! बस्ति से योपसर्ग कई मार्गों को जाता हुआ देखा जाता है । इन मार्गों में एक मार्ग परिगवीनीय लसवाहिनियों (periureteric lymphatics ) द्वारा दूसरे वृक्क को जा सकता है । पहले रोग एक वृक्क में होता है और फिर वह दूसरे बुक में कुछ कालोपरान्त पहुँचता है यह हम कह चुके हैं इसका कारण बस्ति का मध्यस्त बनना है । दूसरा 'मार्ग है अष्टीला या पुरःस्थ ग्रन्थि ( prostate gland) में यक्ष्मोपसर्ग का पहुँचना और वहाँ यचमपुरः स्थग्रन्थिपाक ( tuberculous prostatitis) होना है । पुरःस्थग्रन्थि से शुक्रप्रपिका ( seminal vesicles) शुक्रवाहिनी (vas deferens) और अन्त में अधिवृषणिका ( epididymis ) तक यक्ष्मा पहुँच जाती है। मूत्रमार्ग ( urethra ) में यक्ष्मोपसर्ग होता हुआ देखा नहीं गया । उपसर्ग जब बस्ति में पहुँचता है तो सर्वप्रथम गवीनीद्वार पर अधिरक्तता आ जाती है उसके पश्चात् क्षुद्र श्वेत यचिमकाएँ वहाँ उग आती हैं वे आपस में एक दूसरी से सायुज्यत ( fused) हो जाती हैं । फिर उनमें किलाटीयन प्रारम्भ होता है तत्पश्चात् न होता है । इन क्रियाओं के कारण बस्तिप्राचीर में एक ज्वालामुख सदृश ( cra• ter-like ) मुख बन जाता है । कभी-कभी जब प्रजननांगों या पुरःस्थप्रन्थि से उपसर्ग आरोहण करता हुआ बस्ति की ओर आता है तो उपसर्ग का स्थान बस्तिग्रीवा रहता है। यमोपसर्ग प्रायः बस्ति प्राचीर पर फैलता है । उसके कारण अनेक व्रण बनते हैं। जिनके आधार चीरित और किनारे फूले हुए ( oedamatous ) देखे जाते । कभी कभी रक्तस्त्राव हो सकता है जिसका प्रमाण मूत्र में रक्त की उपस्थिति से हो जाता है । यदि ऊपर से कोई अन्य उपसर्ग न हो तो यक्ष्म बस्तिपाक ( tuberculous eystitis ) में मूत्र की प्रतिक्रिया आग्लिक हो जाती है । यच्मदण्डाणु मूत्र में कठिनता से प्रदर्शित किए जाते हैं । वंटमूषों में अन्तःक्षेपण पद्धति द्वारा यक्ष्मा का सरलतापूर्वक पता लग जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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