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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५६१ मल में यक्ष्मादण्डाणुओं का मिलना आन्त्रिक यक्ष्मा की कोई खास पहचान नहीं बतलाई जाती क्योंकि फुफ्फुसयमापीडित व्यक्ति जब अपना ठीव निगल लेता है तो उसके मल में अवश्य ही यमदण्डाणु मिल सकते हैं। यदममलाशयपाक आन्त्र यच्मा के साथ-साथ मलाशय (rectum) में यक्ष्मोपसर्ग द्वारा व्रण बनते हैं । व्रण मलाशय के निचले भाग में (गुद भाग में) अधिक बनते हैं व्रण के चारों ओर धूसर धब्बों के रूप में श्यामाकसम यचिमकाएँ भी बनती हुई देखी जाती हैं । ये व्रण उपरिष्ठ होते हैं इनके ऊपर सूजे हुए किनारे लटकते रहते हैं। उनकी आकृति अण्डाकार होती है उनकी भूमि में पर्याप्त पाण्डुरवर्णीय कणन होता रहता है । गुदनलिका ( anal canal ) का काठिन्य ( induration ) तथा ग्रन्थन ( nodu. lation ) व्रण के चारों ओर इतना बढ़ जाता है कि उसे देख कर कर्कट (कैन्सर)का आभास होने लगता है। गुदभाग में पाक हो जाता है जिसे यक्ष्मगुदपाक ( tuberculous proctitis) कहते हैं । कभी-कभी यहाँ नाडीव्रण या भगन्दर (fistula) भी बन जाता है। यक्ष्मोदरच्छदपाक यमोदरच्छदपाक ( tuberculous peritonitis) या उदरच्छदस्यून का यक्ष्मोपसर्ग तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकार का हो सकता है। जीर्णपाक सदैव उत्तरजात होता है। उसकी प्राथमिक नाभि शरीर में कहीं अन्यत्र होती है। उपसर्ग का प्रभव ( source ) सदैव स्थानिक होता है। उपसर्ग व्रणित अन्त्र द्वारा, उपसृष्ट आन्त्रनिबन्धनीक ग्रन्थि द्वारा, अथवा स्त्रियों में उपसृष्ट गर्भाशयनाल द्वारा फैल सकता है। इसके अतिरिक्त उपसर्ग का एक साधन रक्तधारा भी हो सकता है जबकि उपसर्ग की नाभि शरीर में कहीं अन्य स्थान पर हो यह स्थान बहुधा फुफ्फुस होता है। जैसा कि अन्य लस्य स्यूनों के उपसर्ग में देखा जाता है उदरच्छदीय उपसर्ग के कारण उत्स्यन्दन ( effusion ) उत्पन्न हो कर वह जलोदर ( ascites ) कर सकता है। कभी-कभी विना उत्स्यन्दन के अभिघट्य उदरच्छदपाक (plastic peritoni. tis ) भी हो सकता है। इन दोनों प्रकार के उदरच्छदपाकों को क्रमशः आई (wet) तथा शुष्क ( dry ) प्रकार करके माना जाता है। आर्द्र प्रकार में जिसमें जलोदर साथ रहता है उदरच्छद में तुद्र पीत वा धूसर वर्ण की यक्ष्मिकाएँ जड़ी होती हैं तथा उदरच्छदीय स्यून ( sac ) में पर्याप्त मात्रा में लघु पीत वर्ण का उपलभासी (opalescent ) तरल भरा रहता है जिसे थोड़ा स्थिर कर देने पर हलका जालकीय आतञ्च (slender reticulatedclot ) बनता है। कभी कभी तरल रक्तरंजित भी देखा जाता है। इस प्रकार में अन्य कुण्डलियों ( coils of intestines ) में अभिलाग नहीं मिलते और यदि वे होते भी हैं तो बहुत हलके होते हैं। यक्ष्मोदरच्छदपाक के शुष्क या अभिघट्य रूप में उत्स्यन्दन नहीं होता पर एक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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