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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान (kinks ) होती हैं। उन्हीं के कारण आन्त्रिक सन्निरोधोत्कर्ष ( intestinal stenosis) हो जाता है। ____ आन्त्रिक यच्मा का दूसरा उपद्रव छिद्रोदर ( perforation ) कहलाता है। यह उपद्रव बहुत कम देखने में आता है क्योंकि व्रण का आधार तन्तूरकर्ष द्वारा मोटा बन जाता है तथा उस पर उदरच्छदकला चिपक जाती है। लौडासन ब्राउन की दृष्टि में यह उतना ही सामान्य है जितना आन्त्रिक ज्वर में। उसने जितने यधिमयों की शव परीक्षाएँ की उनमें २.५ प्रतिशत की आँतों में पूर्ण या अपूर्ण छिद्रण अवश्य मिला था। छिद्रण इतनी सामान्य घटना नहीं है जितनी लौडासन कहता है। पूर्ण छिद्रण के स्थान में अपूर्ण छिद्रों का होना सम्भव है जिनके कारण मलविद्रधियाँ ( faecal abscess ) बन सकती हैं। क्षुद्रान्त्र में पूर्ण और बृहदन्त्र में अपूर्ण छिद्रण मिल सकते हैं। लक्षण-विक्षतसम्बन्ध . आन्त्रिक यक्ष्मा के लक्षण बहुत परिवर्तनशील देखे जाते हैं। वे सर्वाङ्गीण और स्थानिक दोनों प्रकार के होते हैं। सर्वाङ्गीण लक्षणों में बलहीनता, भारहास, वातिक प्रक्षोभ की वृद्धि आदि अधिक होते हैं जो यक्ष्मविष के द्योतक होते हैं । स्थानिक लक्षणों में उदरशूल बहुत महत्वपूर्ण है। यह शूल व्रणों के कारण नहीं होता क्योंकि वे हृषता रहित ( insensitive ) होते हैं। उसका प्रधान कारण अन्त्रगत आक्षेप ( spasm of the bowels) तथा अन्य कारण उदरच्छद का प्रभावी होना ऐसा माना जाता है। जब आन्त्रनिबन्धनीक ग्रन्थियों में यक्ष्मोपसर्ग लग जाता है तो दक्षिणोदरखात (right iliac fossa ) में बहुत शूल हुआ करता है । चूर्णीयित प्रन्थियाँ भी शूलकारिणी होती हैं। अतीसार का उपद्रव भी व्रणों से कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता है। आँतों की अतिचलिष्णुता ( hypermotility ) ही अतीसारकारिणी होती है। अतिचलिष्णुता का कारण आन्त्र प्राचीर में शोथ का होना तथा आन्त्रपेशीमध्यनाडीचक्र (myenteric plexus of Auerbach ) का प्रभावित होना है । कभी-कभी आँतों में यचिमक व्रणन खूब होता रहता है और अतीसार बिल्कुल नहीं देखा जाता और कभी कभी जब आन्त्रिक यचमा के साथ अतीसार का उपद्रव भी मिलता है तो अन्य पेशीमध्यगतनाडीचक्र में विक्षत पाये जाते हैं जिनके कारण प्रगण्ड (ganglian ) कोशाओं में विह्रास, नाडीकंचुकों में शोफ तथा परिनाडीय तथा परिप्रगण्डीय क्षेत्रों में गोलकोशाभरमार खूब होती है। प्रायः क्षुद्रान्त्र में यमविक्षत होने पर मलबद्धता मिलती है, आरोही ( ascending ) बृहदन्त्र ( colon ) में यक्ष्म विक्षत होने पर कुछ अतीसार हो सकता है तथा अवरोही (descending)बृहदन्त्र में विक्षत होने पर तो अवश्यम्भावी अतीसार प्रकट हो जाता है। . . जो व्रणों के कारण प्रत्यक्ष लक्षण देखे जाते हैं उनमें मल के अन्दर गुप्त रक्त ( occult blood ) तथा पूय की उपस्थिति मुख्य हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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