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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान ( well nourvished, afebrile, happy and vigourous ) होता है। उसमें यचमा का निदान नाडी द्वारा नहीं होता अपि तु यचिमपरीक्षा और क्षरश्मिचित्र से ही की जा सकती है। प्राथमिक उपसर्गों में दण्डाणु की मात्रा का सबसे अधिक महत्त्व होता है। मात्रा से अभिप्राय बलसम्प्राप्ति से है। आयुर्वेद में व्याधि की बलसम्प्राप्ति दी गई है जो यह बताती है कि कितने बल से व्याधि ने शरीर को जकड़ा है। जब बलसम्प्राप्ति थोड़ी होती है (जब अल्प मात्र यक्ष्मादण्डाणुओं का उपसर्ग होता है) तब घोणविक्षत बनता है। यह विक्षत फुफ्फुसशीर्ष को छोड़ फुफ्फुस में कहीं भी देखा जा सकता है उसके साथ क्लोमनालीय लसग्रन्थिकाएँ भी प्रवृद्ध होकर किलाटीयन करने लगती हैं। यह विक्षत प्रायः रोपित तथा चूर्णीथित ( calcified) हो जाता है। जब बलसम्प्राप्ति अधिक होती है तो यह विक्षत महीनों रह सकता है । यद्यपि बालक को देखने से कोई नैदानिक विकारजनक लक्षण प्रकट नहीं होता पर यदि उसका क्षरश्मिचित्र लिया जावे तो उसमें बहुत बड़ी छाया देख पड़ती है। यह छाया साधारण यक्ष्मविक्षतों से बहुत बड़ी होती है। इतनी विस्तृत छाया का क्या अर्थ है यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका। कुछ ऐसा मानते हैं कि यह छाया यक्ष्म घोणविक्षत के चारों ओर अनूर्जित प्रतिक्रिया है जिसे अपियक्ष्मा (epituberculosis) कह सकते हैं। परन्तु क्योंकि उसमें भी यक्ष्मा. दण्डाणु पर्याप्त होते हैं अतः वह भी यक्ष्म ( tuberoculous) ही मान लेना चाहिए। छाया दिखने का एक कारण क्लोमशाख का अवरोध होकर वहाँ संभरण (atelectasis) होना भी हो सकता है जो श्लेष्मलकला के शोथ के कारण सम्भव है। आगे चलकर छाया खतम हो जाती है और एक चूर्णीयित घोणविक्षत मात्र रह जाता है। चित्र में वृन्तयुस्थ ग्रन्थियों की चूर्णातुछायाएँ ( hilar shadows ) भी इतस्ततः, मिल सकती हैं। ___अधिक मात्रा में उपसर्ग पहुँचने पर विस्तृत क्षेत्र में किलाटीयन हो सकता है, विवर निर्माण देखा जा सकता है, सम्पूर्ण फुफ्फुसक्षेत्र में उपसर्ग मिल सकता है, घातक यम किलाटीय श्वसनक हो सकता है अथवा रक्तधारा उपसृष्ट होकर उपसर्ग को सर्वाङ्गीण बना सकती है। परन्तु स्वभावतः उपसृष्ट शिशु बिना कोई बाह्यलक्षण प्रकट किए अपने यक्ष्मविक्षत को रोपित करने में समर्थ हो जाता है यदि उसे अधिक मात्र पुनरुपसर्ग शीघ्र ही न होवे । ___उपरोक्त विचार कि शैशवकालीन यक्ष्मा मारक नहीं होती कुछ विद्वानों को अमान्य भी हो सकता है। उसके लिए स्काटलैंड के ब्लैकलाक का नाम ब्वायड ने प्रस्तुत किया है जिसका मत यह है कि उसके प्रदेश में बालफुफ्फुस यक्ष्मा सदैव घातक रोग रहता है। उसके स्थानिक कारण हो सकते हैं। स्काच व्यक्ति यक्ष्मा से जितना प्रभावित होता है उतने अन्य देशीय नहीं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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