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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५४१ अल्प प्रमाण में यक्ष्मोपसर्ग निरन्तर मिलता जाता है जो उसकी प्रतीकारिता को बढ़ाता चलता है। ४-ज्यों ज्यों प्रतीकारिता शक्ति बढ़ती जाती है त्यों त्यों फुफ्फुसस्थ विक्षतों को तान्तव ऊति की प्राचीरों में बन्द करने की शक्ति फुफ्फुसों में बढ़ती चली जाती है । इसके कारण सब विक्षत स्वस्थ ऊति से पृथक कर दिये जाते हैं। ___५-ज्यों ज्यों बालक बड़ा होता जाता है उसे ऐसे अवसर आते चले जाते हैं जब कि उसे अधिक प्रमाण में यक्ष्मोपसर्ग पहुँचे । इस अवस्था में शरीर में जो अवाप्त अनूर्जा रहती है वह काक घटना को प्रोत्साहित करती और विवर निर्माण ( cavity formation ) होने लगता है। ६-यदि किसी समय उसे बहुत बड़ा उपसर्ग लग गया या अधिक परिश्रम के कारण (साहसात् ), अनशनादि (विषमाशनात् ), अन्य उपसर्गों के द्वारा (क्षयात् ) उसकी प्रतीकारिता शक्ति टूट गई तो उसे तीवस्वरूप का उपसर्ग लग कर यक्ष्मा का सक्रिय रूप चल पड़ सकता है। प्रतीकारिता का यक्ष्मा के साथ कितना निकट का सम्बन्ध है उसे प्रकट करने के लिए हम ब्वायड के निम्न शब्द उद्धृत करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं: Immunity is the master word in tuberculosis. It is more to be desired than freedom from infection, for the better is an unattainable ideal and the rarer the infection the more dangerous does it become. प्रतीकारिता यक्ष्मा में एक बहुत बड़ा शब्द है। यह जितनी अभीप्सित है उतनी उपसर्ग से मुक्ति नहीं, क्योंकि उपसर्ग से मुक्त हुआ ही नहीं जा सकता तथा उपसर्ग जितना अधिक विरल होगा उतना ही यह अधिक भयावह बनेगा। भारत में बहुधा पुराने लोगों का कहना होता है कि किसी रोग से घृणा न करो अन्यथा वही हो जावेगा। यह बात कलतक जितनी अवैज्ञानिक और मूर्खतापूर्ण लगती थी उतनी उपरोक्त वाक्य के पश्चात् नहीं। क्योंकि अब तो हमें रोग के साथ थोड़ा सम्पर्क रखकर अपने शरीर को सिखाना होगा कि वैरी की भयानकता क्या हो सकती है। यदि हम वैसा नहीं करेंगे तो शरीर उस अस्त्र को अवाप्त न कर पावेगा और उस रोग के प्रति अरक्षित रह जावेगा। दृष्टिकोण में आज कितना बड़ा अन्तर है ! अन्तरं महदन्तरम् !! पहले शिशुयमा अत्यन्त भयानक व्याधि मानी जाती थी पर आज उससे भय करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई। आज हमारा कार्य यह रह गया है कि क्षयपीडित शिशुको इतना सुरक्षित कर दो कि वह यक्ष्मा से पुनरुपसृष्ट न होने पाये। इतनी सावधानी रखी नहीं कि बालक यक्ष्मा के विक्षतों को अपने वश में करके इतनी प्रचण्ड प्रतीकारिता अपने में उत्पन्न करेगा कि फिर उसका बाल भी बाँका होना सम्भव नहीं है यदि आचरण शुद्ध रहा तो । फुफ्फुस यक्ष्मा से पीडित बालक खाडन एवं मेडोवी की दृष्टि में 'परिपुष्ट, ज्वररहित, प्रसन्नचित्त तथा ओजस्वी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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