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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३४ विकृतिविज्ञान उपस्थिति यक्ष्मादण्डाणुओं के प्रत्यक्ष धमनीप्राचीर पर आक्रमण के कारण न होकर फुफ्फुसों द्वारा होता है। और जब कभी अस्थि, सन्धि, वातनाडीसंस्थान, नेत्र या वृक्क में यक्ष्म विक्षत का कुछ भी पता चले रोगी के फुफ्फुसों की अवश्य परीक्षा करनी चाहिए । परीक्षा करने पर निस्सन्देह यक्ष्मा का कोई गुप्त विक्षत वहाँ पर मिलेगा ही। इस दृष्टि से फुफ्फुस एक ऐसा स्टेशन ( स्थात्र ) है जहाँ यक्ष्मादण्डाणुओं की गाडी आती भी है तथा जाती भी है। ____ जो कुछ ऊपर कहा गया है उससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि सामान्य श्यामाकसम यक्ष्मा सामान्य यक्ष्मोपसर्ग का एक आत्यन्तिक नैदानिक रूप ( extreme clinical form ) मात्र है जो प्रायः हीन होकर नियमतः होती है । नैदानिक दृष्टि से यचमा एक स्थानिक उपसर्ग मात्र मालूम पड़ता है यद्यपि यक्ष्मादण्डाणु सम्पूर्ण शरीर में फैल जाते हैं और जहाँ-जहाँ वे फैलते हैं वहाँ-वहाँ छोटे-छोटे विक्षत बनाते हैं पर यतः व्यक्ति में प्रतीकारिता ( immunity ) अधिक होती है अतः वे सूक्ष्म विक्षत दृष्टिपथ में आते नहीं। त्वचागत यक्ष्मा का उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि यक्ष्मोपसर्ग बहुत विस्तृत होता है पर यह हर जगह पर बहुत बड़े रोग का रूप ले यह आवश्यक नहीं है । रोग का बनना या बढ़ना रोगाणु की मात्रा निश्चित किया करती है । यदि रोगाणुओं की मात्रा अधिक है तो बड़ी से बड़ी प्रतीकारिता शक्ति भी नष्ट की जा सकती है। - इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी प्रकार की यक्ष्मा हो जब कत किसी विशिष्ट अंग में उसका विक्षत बन कर उसका विशेष नाम नहीं पड़ जाता तब तक उसे यक्ष्मादण्डाणु रक्तता ( tuberculous bacillaemia )ही मानना होगा । उसका प्रमाण यह है कि किसी भी प्रकार की यक्ष्मा से पीडित व्यक्ति के रक्त में विशिष्ट पद्धति द्वारा शतप्रतिशत यचमादण्डाणुओं की उपस्थिति दर्शाई जा सकती है । ___ अब हम एक बार पुनः फुफ्फुस में यमदण्डाणुओं के प्रसार का विचार कर सकते हैं। यह प्रसार ३ विधि से होता है या हो सकता है। एक तो लसवहाओं द्वारा, दूसरे वायु मार्ग द्वारा तथा तीसरे रक्तधारा द्वारा। इन तीनों में लसवहाओं द्वारा प्रसार सामान्यतम है । लसवहा रक्तवाहिनियों और क्लोमनाल के साथ-साथ चलती हैं इस कारण लसवहाओं द्वारा प्रसरित होने वाले यक्ष्मोपसर्ग के विक्षत परिवाहिन्य (perivascular ) तथा परिक्लोमनालीय ( peribronchial ) होते हैं । ये विक्षत बहुत छोटी-छोटी ग्रन्थिकाओं के रूप के होते हैं जिन्हें काटने पर उनमें यदिमकाओं के गुच्छसमूह (staphyloid groups of tubercles ) मिलते हैं। प्रत्येक समूह के केन्द्र में एक छोटी वाहिनी या क्लोमनाल प्रायशः पाई जाती है। ये गुच्छसमूह एक किलाटीय क्षेत्र के चारों ओर देखे जाते हैं जो यह भी प्रकट करते हैं कि रोग अभी फैल रहा है । अण्वीक्ष में देखने से पता चलता है कि क्लोमनाल या वाहिनी की प्राचीर में यचिमका फटना चाहती है जिसके कारण किसी भी समय रोग किन्हीं दो तीव्र रूपों में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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