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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५३३ उपसृष्ट धूल के श्वसन से हो सकता है । इन सब में मुख द्वारा साँस लेने का मार्ग अधिक सामान्य मालूम पड़ता है I प्रसार की विधि - सम्पूर्ण शरीर में यक्ष्मा का प्रसार तथा फुफ्फुस में यक्ष्मा का प्रसार ये दो मुख्य समस्याएँ हैं जिन पर विचार करना है । यमदण्डाणु अचल ( immobile ) प्राणी है इसके कारण यह स्वयं गति करने में असमर्थ रहता है अर्थात् इसको चलाना पड़ता है । इसे चलाने का कार्य भक्षिकोशा करते हैं जो इसे अपने गर्भ में रखकर इतस्ततः चलते हुए स्थान स्थान पर इसका उपसर्ग पहुँचा देते हैं। ज्यों ही एक यक्ष्मादण्डाणु फुफ्फुस या उदर की श्लेष्मल For पर बैठता है कि उसे एक अन्तश्छदीय या बहुन्यष्टि भत्तिकोशा पकड़ लेता है और उसे श्लेष्मल कला में होकर लसावकाश (lymph spaces ) में ले जाता है । लसावकाश से लसधारा में होता हुआ यह अपने प्रथम विश्राम स्थल में आ जाता है । जिसे हम सग्रन्थि कहते हैं । वास्तव में देखा जावे तो यक्ष्मा लाभ ऊति का एक रोग है और लाभ ऊति वह ऊति है जो शरीर पर आक्रमण करने वाले जीवों का संहार करने के लिए बनाई गई है । पर यह घातक जीवाणु हमारे शरीर के रक्षकों से डट कर युद्ध करता है उन्हें परास्त करता है तथा अपना प्रगुणन करता है । यदि यक्ष्माPost अपनी प्रथम विश्राम स्थली में प्रगुणित हो जाता है तो फिर यह सर्व शरीर पर विजय प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है । इसका मार्ग केन्द्राभिमुख होता है इस कारण यह मुख्या रसकुल्या द्वारा सिरारक्त में प्रवेश कर जाता है । सिरारक्त से यह हृदय के दक्षिण भाग में आता है जहाँ से यह फुफ्फुस में प्रवेश करता है । अभी तक दण्डा को भक्षिकोशा लिए चल रहा था और वह उसे फुफ्फुस तक ले आया । यहाँ आते आते वह खूब फूल जाता है और उसे फुफ्फुस के केशालों में होकर जाना कठिन हो जाता है अतः वह केशाल मुख के पास ठहर जाता है और वाहिनी की प्राचीर फोड़ कर फुफ्फुस के लसावकाश में स्थित हो जाता है या लसाभ ऊति में विश्राम करने लगता है । हो सकता है कि यहाँ यह फिर पकड़ा जावे और रोग की एक नाभि उत्पन्न कर दे अथवा यह आगे भी बढ़ सकता है और श्वासक्लोमनालीय लसग्रन्थियाँ ( tracheobronchial lymph nodes ) में अवस्थान कर सकता है। इसका तो अर्थ यह हुआ कि शरीर के किसी भी भाग में उपसर्ग लगे उपसर्गकारी दण्डाणुओं को कभी न कभी फुफ्फुस में आना पड़ेगा और फुफ्फसीय लसग्रन्थियों से सम्पर्क स्थापित करना पड़ेगा ( स ) | श्वसन द्वारा उपसर्ग लगने से अन्य ऊतियों की अपेक्षा फुफ्फुस सबसे अधिक प्रभावित होते हैं इसका कारण अब भले प्रकार समझा जा सकता है । जब फुफ्फुसरूपी लौहपाश से ये यक्ष्मादण्डाणु बच पाते हैं तब कहीं वे रक्तधारा में होकर अन्यत्र यक्ष्मोपसर्ग शरीर में करने में समर्थ हो पाते हैं । लस ऊति द्वारा उपसर्ग के प्रसार का इतना महत्त्व होते हुए भी रोग प्रत्यक्ष प्रसार ( direct extension ) द्वारा भी फैल सकता है, शरीरस्थ प्रकृत मार्गों द्वारा भी बढ़ सकता है तथा रक्तधारा भी उसे फैला सकती है । रक्त में दण्डाणुओं की For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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