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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ विकृतिविज्ञान यह पृयन और तरलन दोनों पृथक् पृथक् वस्तुएँ हैं एक में पूयकोशा उपस्थित रहते हैं जब कि दूसरे में वे नहीं मिलते। यही कारण है कि पूयिक विधियों में व्रणशोथ के समस्त चिह्न सन्ताप, लालिमा, शूलादि लक्षण मिलते हैं पर तरलन द्वारा उत्पन्न क्षयज विद्रधि ( tuberculous abscess ) में व्रणशोथ का कोई लक्षण नहीं हुआ करता । इसी लिए क्षयज विद्रधि को शीतविद्रधि ( cold abscess ) भी कहा जाता है । शीतविद्रधि का तरल अपना मार्ग बनाकर पर्याप्त दूर चला जाता है। कटिलम्बिनीय विद्रधि (psoas abscess ) उसका ही उदाहरण है। यह विद्रधि पृष्टकटीय कशेरुकाओं में एक स्थान पर उपसर्ग होने से उत्पन्न होती है परन्तु यह कटिप्रदेश में एक वंक्षणिका स्नायु ( inguinal ligament ) के नीचे और कभी कभी तो अरु ( thigh) के नीचे कटिलम्बिनी पेशी के कञ्चक में होकर एक सुजन के रूप देखी जाती है। ऐसी विद्रधियों में यक्ष्मपूय ( tuberculous hus) भरा होता है। यह यमपूय रचनाविहीन कणीय स्नैहिक कोशाओं का अपद्रव्य ( structureless granular fatty-cell debris ) मात्र होता है जिसमें कुछ विहासित लसीकोशा पाये जाते हैं । जब तक पूयजनक जीवाणुओं का उसमें उपसर्ग नहीं होता यक्ष्मपूय में बहुन्यष्टि कोशा मिलते नहीं। जब कभी ये विद्रधियाँ धरातल पर आकर फूटती है तो एक लम्बा नाडीव्रण (sinus) देखा जाता है जिसके प्राचीरों पर यक्ष्म कणन ऊति का स्तर चढ़ा होता है। इस कणन ऊति में और साधारण कणन ऊति में इतना ही अन्तर होता है कि इसमें महाकोशा तथा यक्ष्मादण्डाणु और पाये जाते हैं । प्रायः ये नाडीव्रण पूयजनक जीवाणुओं द्वारा उपसृष्ट हो जाया करते हैं। यदि यह तरलन क्रिया किसी फुफ्फुस में हुई तो शीघ्र या विलम्ब से किसी क्लोम नाली ( bronchiole) का अपरदन अवश्य हो जाता है और रोगी खाँसी के साथ तरलित पदार्थ बाहर उडेल देता है । तरल के निकल जाने के बाद जो रिक्त स्थान बन जाता है वह कूप या विवर ( cavity ) कहलाता है। इसका निर्माण जितना समय लेता है उसी के अनुसार उसे तीन या जीर्ण नाम दिया जाता है । तीव्र विवर वह जब किलाटीपन द्रुतगति से होकार शीघ्र तरल न हो और शीघ्र ही विवर बन जावे जीर्ण में सब काम विलम्ब से होता है । तीव्र विवर भद्दा, रूखा और विषमप्राचीर युक्त होता है जिसमें कोई निश्चित स्तर नहीं होता न तान्तव सीमा (fibrous demarcation ) ही होता है। जब कि जीर्ण विवरों में सुनिश्चित तान्तव प्राचीर होती है जिसमें लाल मखमली यक्ष्मकणन अति है और जिसमें क्लोमनाली ( bronchiole ) खुलती हुई देखी जाती है। तन्तूत्कर्ष यमोपसर्ग में ऊतियों का विनाश होता है तथा रक्तपूर्ति ( blood supply) में बाधा पड़ती है। इस कारण यहाँ विक्षतों का रोपण तन्तूत्कर्ष द्वारा ही सम्भव होता है। यदि शरीर की प्रतिरोधक शक्ति अधिक हो तथा रोगकारी जीवाणु की उग्रता भी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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