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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५११ अब हम इन्हीं परिवर्तनों का आवश्यक वर्णन उपस्थित करते हैं जिनके बल पर यक्ष्मा की सम्पूर्ण वैकारिकी अवलम्बित है। किलाटीयन जिस किसी ऊति में कोई यक्ष्मकवकवेत्राणु ( यक्ष्मादण्डाणु) पहुँच जाता है तो जब तक उसमें वाहिन्यपरिवर्तन होते हैं उससे बहुत पहले से ही उस ऊति पर उसका विषैला प्रभाव पड़ने लगता है। यह प्रभाव यक्ष्मिका के केन्द्रभाग में सर्वप्रथम पड़ता है और सर्वप्रथम केन्द्रस्थ महाकोशा यक्ष्मविष के कारण नष्ट होने लगता है। केन्द्रभाग से परिणाह की ओर विष का प्रभाव होता चलता है और अधिकाधिक अति उसमें ग्रसित होती चली जाती है तथा कोशाओं पर प्रभाव पड़ता जाता है। किलाटीय कटिबन्ध के परिणाह पर अतिकोशाओं में स्नैहिक विह्रास मिलता है जो वैषिक अति मृत्यु से पूर्व सदैव देखा जाता है । किस प्रकार किलाटीयन प्रक्रिया सम्पन्न होती हैं यह एक समस्या ही है। इसका प्रपुष्ट प्रमाण अभी तक प्रगट नहीं हो सका है। जौबलिंग और पीटरसन ने अपने प्रायोगिक परीक्षणों से यह मत प्रगट किया है कि यक्ष्मादण्डाणु कुछ ऐसे पदार्थ उत्पन्न करता है जो उन प्रोभूजिनांशिक और स्नेहांशिक (lipolytic ) किण्वों के कार्य में बाधा डाल देते हैं जो साधारणतया मृत ऊतियों का आत्मपाचन ( auto. lysis )करते हैं। इस प्रक्रिया के कारण यदिमका का केन्द्रभाग जिसमें किलाटीयन प्रारम्भ हो चुका है एक प्रकार के अति सूक्ष्म कणीय अस्फटीय अपद्रव्य से भर जाता है तथा जिसके परिणाह पर कोशाओं के भग्नावशेष स्वरूप आसंकुचित (shrunken ) न्यष्टियाँ देखी जाती हैं। किलाटीयित क्षेत्र के भीतर या उसके बिलकुल समीप विहासित महाकोशा देखे जा सकते हैं। किलाटीयन की प्रक्रिया अति द्रुतगति से होती है। इसका द्रौत्य जीवाणु की उग्रता के अनुपात से भी अधिक देखा जाता है। यह क्रिया विस्तृत या प्रसृत विक्षतों में बहुत अधिक मिलती है। ये विक्षत पीले रंग के रचना विहीन, दधिकसम (cheesy ) तथा मृदुल पदार्थ से भरे रहते हैं। किलाटीयन के पश्चात् प्रायः तरलन ( liquefaction ) होता है। जहाँ फिरंग के विक्षत ज्यों के त्यों तथा कड़े बने रहते हैं वहाँ यमविक्षत उनके विपरीत विघटित होने की प्रवृत्ति में पूर्ण विश्वास करते हैं । अतियों का तरलन क्यों होता है इसके लिए यह सम्भवतः कहा जा सकता है कि ऊतियों में स्थित किण्व ऊतियों के आत्मपाचन में जब यक्ष्मविष द्वारा अशक्त कर दिये जाते हैं तो किण्वन नहीं हो पाता तथा तरल रूप में ऊति परिणत हो जाती है। किलाट पदार्थ में अननुविद्ध स्नेहाम्लों (unsaturated fatty acids) अत्यधिक मात्रा में रहते हैं और हो सकता है कि इन्हीं के कारण प्रवृत्त किण्व अशक्त कर दिये गये हों। तरलन का परिणाम यक्ष्मज या क्षयज विद्रधि की उत्पत्ति में होता है। कभी कभी किलाटीय पदार्थ को पूयजनक जीवाणु उपसृष्ट करके वहाँ पूयन कर देते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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