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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा सूक्ष्म से सूक्ष्मतम यमिका जिसे हम देख पाते हैं तीन या चार महाकोशाओं द्वारा निर्मित होती है जिसका स्वरूप वैसा ही होता है जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं । इस प्रकार जितनी भी नाभियाँ ( foci ) बनती हैं वे धूसर या श्यामाकसम यमिकाकों के नाम से पुकारी जाती हैं। वे आधूसर ( greyish ), अर्द्धपारदर्श, गोलीय पिण्डकाएँ होती हैं जिनकी आकृति एक बिन्दु से लेकर एक आलपिन ( अन्धसूची) शीर्ष के बराबर या कुछ बड़ी होती हैं। ये यदिमकाएँ दृढ, गोलिकासम (shotty) स्पष्टतः परिलिखित ( distinctly circumscribed ) होती हैं तथा जब ऊति को काटा जाता है तो उसके धरातल पर कुछ उठे हुए ( projected - प्रक्षिप्त ) भाग दिखाई देते हैं । ५०६ पीतयदिमका - इस नाम से भी कुछ यचिमकाएँ पुकारी जाती हैं। ऊपर वर्णित यमिकाओं से कुछ बड़ी, कम सन्तत ( less regular ), अप्रगल्भ less closely defined ) तथा कुछ सौम्य यदिमकाओं को जिनमें किलाटीयन प्रक्रिया चल पड़ी हो पीत यमिकाओं ( yellow tubercles ) के नाम से पुकारा जाता है । कई छोटी-छोटी धूसर यदिमकाएँ मिल कर जो पास-पास बनती हैं और साथ-साथ ही अपना एवं समीपस्थ ऊति का किलाटीयन करके जो एक दीर्घपुंज ( large mass ) बनता है वह भी पीतयमिका या संपिडन यक्ष्मिका ( conglomerate tubercle ) कहा जाता है | किलाटीयन के कारण इनका वर्ण पीत हो जाता है । पर पीत वर्ण के चारों ओर एक संकीर्ण श्लिषीय ( gelatinous ) कटिबन्ध धूसर यक्ष्मिकाओं का भी देखने को मिलता है । ये धूसर यमिका किलाटीय नाभि से समीपस्थ ऊतियों मैं विकिरित ( radiating ) देखी जाती हैं । जो इसको पुष्ट करती हैं कि केन्द्रिय पुंज से उपसर्ग समीपस्थ ऊतियों में जाकर नई यचिमकाएँ उत्पन्न कर रहा है और ज्यों-ज्यों यह पुंज बढ़ता जाता है वे यचिमकाएँ भी इसी केन्द्रिय पुंज के भाग के रूप में परिणत हो जाती हैं । For Private and Personal Use Only जैसा एक बार और कहा जा चुका है। अन्य व्रणशोथात्मक वितों और यक्ष्मविज्ञतों (यदिमकाओं ) में एक बड़ा अन्तर यह होता है कि जहाँ प्रथम में पर्याप्त रक्त होता है वहाँ दूसरों में रक्तवाहिनियों का पूर्णतः अभाव होता है । यदिमकाओं की ओर यदि कोई वाहिनी जाती भी है तो या तो उसका मुख घनास्रोत्कर्ष के कारण बन्द हो जाता है या उसके अन्तश्छद में प्रक्षोभजन्य परमचय ( अतिघटन ) होने से अन्तश्छद का विनाश होकर अभिलोपी अन्तश्छदीयपाक हो जाता है । इसमें कोई रक्तवाहिनी बनती नहीं तथा अधिरक्तता नामक घटना इसके अन्दर कभी देखी नहीं जाती । हाँ, यदि रोगाक्रमण अतितीव्र हुआ तो यदिमकाओं के परिणाह (periphery ) पर कुछ अधिरक्तता मिल सकती है । रक्तवाहिनियों का जैसे मुख बन्द हो जाता है ठीक उसी प्रकार कुछ-कुछ लसवहाओं का मुख भी निचूषित ( occluded ) हो जाता है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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