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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० विकृतिविज्ञान १-केन्द्र में- (अ) एक या अधिक बहुन्यष्टियुक्त महाकोशा (आ) महाकोशाओं के अन्दर यक्ष्मादण्डाणु (इ) महाकोशाओं के चारों ओर कणीय अपद्रव्य २-बाहर जालकान्तश्छदीय या अधिच्छदाभकोशा जिनमें स्वच्छरस भरा हुआ होगा तथा न्यष्टि बड़ी होगी। ३-२ के बाहर-(अ) लसीकोशाओं का एक कटिबन्ध । (आ) उसी कटिबन्ध में मिले हुए तन्तुरुह ( fibroblast ) इस कटिबन्ध की बाह्य या आभ्यन्तर कोई विशेष सीमा नहीं देखी जाती। यदि विक्षत का निर्माण शनैः शनैः हुआ तो महाकोशाओं से प्रवध निकल कर उनके चारों ओर फैले अधिच्छदाभ कोशाओं के साथ जालक्रिया ( anastomosis) बनाते हैं। उपरोक्त जो रचना बताई गई है वह पूर्णतः स्थिर हो और ब्रह्मा की लकीर हो ऐसा नहीं है और न महाकोशाओं की उपस्थिति का ही अर्थ यक्ष्मा का पूर्ण निदान है। प्रत्येक यदिमका का अतीत और भविष्य दोनों ही होते हैं। इसका विकास एक विधि (process ) द्वारा होता है। अतः जब वह विधि पूर्ण हो जाती है तभी यक्ष्मिका ( tubercle ) बन जाती है । सब यक्ष्मिकाएँ सदैव साथ-साथ बनती हो और एक बराबर समय लगता हो सो भी नहीं है। इस कारण कोई यचिमका कभी और कोई कभी मिलती रहती हैं। जिस प्रकार अन्य उपसर्गों में उपसर्गकारी जीवाणु की उग्रता एक महत्त्व का भाग अदा करती है वही यक्ष्मा में भी होता है। जितना ही उग्र यक्ष्मकवकवेत्राणु होगा उतना ही शीघ्र यक्ष्मिका बनेगी। जब दण्डाणु अधिक उग्र प्रकार का होता है तो यक्ष्मिका में महाकोशा नहीं दिखते न यचिमकाएँ ही पृथक-पृथक देखी जाती हैं। वहाँ तो केवल एक किलाटीय अपद्रव्य का एक पुञ्ज जिसके परिणाह में गोलकोशीयभरमार इतना ही दृग्गोचर हो पाता है । इस परिवर्तन का कारण यक्ष्मादण्डाणु द्वारा प्रदत्त तीव्र विष है जो ऊतियों का विनाश करता चलता है और महाकोशा निर्माण का कोई समय नहीं देता। एक अच्छा औतिकीय चित्र जिसमें महाकोशादि सभी कोशा स्पष्ट दीख सकें जीर्ण यक्ष्मा पीडितों में मिला करता है जहाँ यक्ष्म प्रक्रिया और शारीरिक प्रतिरोध दोनों सन्तुलित होकर रहती हैं। ___यदि यमकवकवेत्राणु सौम्य प्रकार का है या उसकी उग्रता अधिक नहीं है तो भी महाकोशाओं का निर्माण नहीं होता क्योंकि उद्दीपनशक्ति ( stimulus ) अपूर्ण रहती है उस समय तन्तूत्कर्ष लसीकोशीय भरमार तथा विकीर्ण दीर्घभक्षि ( macrophages ) युक्त औतिकीय चित्र दिखाई देता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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