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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदमा यक्ष्माकारक है क्योंकि यहाँ पक्क दुग्ध या शृत दुग्ध पान की प्राचीन परिपाटी यथावत् प्रचलित है दूसरे यहाँ के पशुओं में यक्ष्मा उतनी नहीं जितनी अन्यत्र । फुफ्फुस में विक्षत प्रसार ३ प्रकार से होता है । एक लसवहाओं द्वारा, यह प्रकार अधिक प्रचलित है। दूसरा क्लोम शाख जनित ( bronchogenic ) जब कि किलाटीय द्रव्य एक क्लोमशाख से दूसरी में पहुँच जाता है। तथा तीसरा जब कि फुफ्फुसीय सिरा ( pulmonary vein ) का सुषिरक ( lumen ) भी यक्ष्मा से प्रभावित हो जाता है जिसके कारण एक भाग से दूसरे भाग में यदमा जाती है और जो श्यामाकसम प्रकार की यक्ष्मा के लिए उत्तरदायी है। उपसर्ग का प्रसार यद्यपि थोड़ा सा हम यक्ष्मादण्डाणु के द्वारा होने वाले उपसर्ग के प्रसार का आभास करा चुके हैं पर नीचे इसी को हम और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं । यक्ष्म उपसर्ग का प्रसार ४ रीतियों से हीता है :१. लसवहाओं द्वारा २. रक्तवहाओं द्वारा ३. प्रकृतमार्गों द्वारा ४. अतिवेधन द्वारा यमोपसर्ग के प्रसार का सर्व सामान्य मार्ग लसवहाओं ( lymphatics ) द्वारा है। दण्डाणु के भार से लदे सितकोशा तथा स्वतन्त्र यक्ष्मादण्डाणु लसधारा ( Jym. ph stream ) में बह कर समीपस्थ लसप्रन्थिक तक पहुँच जाते हैं। आन्त्रिक यमव्रण से आन्त्रनिबन्धनीक लसग्रन्थि के उपसर्ग का मार्ग लसवहाओं द्वारा होता है। इन्हीं लसवहाओं के द्वारा इन दण्डाणुओं के गमन की प्रवृत्ति के कारण ही बहुधा न मुख में कोई प्राथमिक व्रण मिलता है और बहुधा आँतों में भी नहीं मिलता परन्तु ग्रैविक लसप्रन्थियों ( cervical lymph glands) तथा आन्त्र निबन्धनीक लसग्रन्थियों में यमोपसर्ग बहुधा देखा जाता है। ___ यक्ष्मोपसर्ग का दूसरा साधन रक्तवहाएँ हैं। जहाँ यक्ष्मविक्षत हो और उसके समीप की रक्तवाहिनी का सुषिरक अभिलोपी अन्तश्छदीय पाक के कारण बन्द न हो गया हो तो यक्ष्म कणन अति वाहिनीप्राचीर का अतिवेधन करके उसके अन्तश्छद में यदिमका (tubercles) उत्पन्न कर सकती है। ये यदिमकाएं वाहिनी के सुषिरक में फट सकती हैं और तब यक्ष्मादण्डाणु निकल कर रक्तधारा में बहते हुए शरीर के दूरस्थ भागों तक पहुँच सकते हैं। औदरिकयचमा में मुख्यालसकुल्या द्वारा रक्त को यक्ष्मादण्डाणु भेजे जा सकते हैं। रक्त में दण्डाणु आन पर आगे का प्रभाव रोगी की प्रतिरोधकशक्ति, यमादण्डाणुओं की संख्या तथा उनकी उग्रता ( virulence ) पर निर्भर रहता है। यदि जीवाणु अत्युग्र हैं और रोगी की प्रतिरोधकशक्ति का हास हो चुका है तो एक सर्वाङ्गीण उपसर्ग (generalised infection ) लग सकता है। पर यदि उपसर्गकारी जीवाणुओं की संख्या कम है और शरीर में प्रतीकारिताशक्ति पर्याप्त है तो उत्तरजात विक्षतों के उत्पन्न होने का काई अवसर हो नहीं , आ सकता है । यदि प्रतिरोधकशक्ति और जीवाण्विक उग्रता दोनों सन्तुलित ( bala ४३ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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