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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ विकृतिविज्ञान और सिन्धु से ब्रह्मदेश पर्यन्त मानता और लाभ उठाता रहा है तथा सम्भवन्ति महा. रोगा अशुद्ध क्षीर सेवनात् का तत्व उसने सदैव समझा है। अब हम यक्ष्मा के विविध प्रभवस्थलों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत करते हैं। टीव-यक्ष्मा से पीडित प्राणी इतस्ततः ढेरों कफ थूकता है। उसके ष्ठीव या थूक ( sputum ) में लक्षावधि यचमादण्डाणु उपस्थित रहते हैं। वह कभी इसका ध्यान नहीं करता है कि जिस मिट्टी में वह थूक रहा है उसी में बालक वृन्द लोटते हैं और उनके शरीर पर वह दूषण लग कर उन्हें इस रोग में ग्रस्त कर देता है। और असंख्यों व्यक्तियों में यक्ष्मा के पहुँचने का प्रधान कारण ठीव मिलता है। अपने देश में राष्ट्रधर्म का पारतन्व्य काल से कुछ लोप सा चला आ रहा है जिसके कारण इतस्ततः थूकने से राष्ट्र के स्वास्थ्य पर कितना भयावह आक्रमण होता है इसकी ओर दृष्टि भी नहीं जाती परिणामस्वरूप एक ही परिवार में एक के पश्चात् दूसरा प्राणी क्षय से पीडित होता हुआ और मरता हुआ चला जाता है । ग्रीन का कथन है कि यदि किसी चित्रपट्टी पर ष्ठीव में यचमादण्डाणु की उपस्थिति मिल जाती है तो उसका यह अर्थ लेना चाहिए कि एक धनसंटीमीटर ष्ठीव में पच्चीस सहस्र यक्ष्मा के दण्डाणु उपस्थित हैं । क्षय पीड़ित प्राणी अपने ष्ठीव को कभी दीवालों पर थूकते हैं, कभी वह कपड़ों पर गिर जाता है और कभी अन्यत्र पहुँच कर जब वह सूख जाता है तो उसको धूल के कण ग्रहण कर लेते हैं। धूल के कणों से वह किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के फुफ्फुसों में सहज ही अपना स्थान बना कर उसे यक्ष्मानामक महाघातक व्याधि के लौहपाश में जकड़ देता है जिससे मुक्ति का यथार्थ मार्ग आज तक तो प्राप्त हुआ नहीं। दुग्ध-दुग्ध द्वारा यदमा प्रसार के दो मार्ग हैं। एक तो वह जब गाय स्वयं यदमा पीडिता हो और उसके दुग्ध में यचमा के दण्डाणु उपस्थित देखे जावें। दूसरा यह कि जब गाय पूर्णतः स्वस्थ हो परन्तु गाय को काढने वाला ग्वाला क्षय से पीडित हो और उसके श्वास प्रश्वासादि से उपसर्ग दुग्ध में पहुँच जावे। क्योंकि दुग्धपान प्रधानतः बालक अधिक करते हैं इस प्रकार बालकों और शिशुओं में यक्ष्मा इस ढंग से भी फैल सकती है। पर यदि दुग्ध १०० श. तक कुछ काल तक उबाल कर पिया जावे तो इस मार्ग से यक्ष्मा का उपसर्ग लगना कठिन हो सकता है। आचार्य सुश्रुत ने कच्चे और उबाले हुए दुग्ध के गुण बतलाते हुए लिखा है : । पयोऽभिष्यन्दि गुर्वामं प्रायशः परिकोर्तितम् । तदेवोक्तं लघुतरमनभिष्यन्दि वै शृतम् ।। कच्चा दुग्ध अभिष्यन्दी और भारी कहा गया है तथा यदि वही औटालिया जावे तो वह अनभिष्यन्दी तथा लघु हो जाता है। सुश्रुत ने प्राभातिक दुग्ध से आपराहिक दुग्ध को अधिक श्रेष्ठ बतलाया है। उसका कारण देते हुए कहा है कि रात्रि में पशु पर रात्रि के सोमगुण का प्रभाव पड़ता है। दूसरे वह व्यायाम नहीं करता इस कारण दुग्ध भारी, विष्टभी और शीतल हो जाता है। दिन में पशु सूर्य से परितप्त हो जाता है और प्रचुर परिश्रम करता और वायुसेवन करता है इस कारण उसका दुग्ध श्रमहर, वातानुलोमक (carminative) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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