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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यत्मा आचार्य उसके इस लक्षण की ओर कोई ध्यान न देकर उसके प्रथम ३ लक्षणों के द्वारा यक्ष्मा को पहचानने का इङ्गित करते हैंअंसपार्धाभितापश्च सन्तापः करपादयोः । ज्वरः सर्वाङ्गगश्चेति लक्षणं राजयक्ष्मणः ॥ (चरक चि. स्था. अ. ८) अंसपार्श्व में पीडा (pain or tenderness in the apex of the lung ), हस्तपादों में जलन ( burning sensation in the extremities ) तथा सर्वाङ्ग में ज्वर (rise of temperature all over the body surface ) इन तीन लक्षणों में यक्ष्मा के ज्ञान की सम्पूर्ण रेडियोलौजी भरी हुई है। लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि क्या इन तीन लक्षणों के होने का अर्थ उसमें यक्ष्मादण्डाणु को देखा जा सकता है ? इसका उत्तर है नहीं। जिस समय हम यच्मादण्डाणु के प्रत्यक्ष दर्शन कर लेते हैं और उसके द्वारा उत्पन्न विक्षतों तथा यदिमकाओं को पा लेते हैं तब तो रोग इतना दृढ हो गया रहता है कि उसका निष्कासन अनेकों 'वण्डरड्रग्स' करने में आज तक असमर्थ रही हैं। ये ३ लक्षण अर्थात् यक्ष्मादण्डाणु के शयन के लिए आराम कुर्सी बिछा देना है। रोगराट कब वहाँ पधारते हैं इसका विचार करने के पूर्व ही उस कुर्सी को उठा कर फेंक दो या वहाँ स्वास्थ्यराट को आसनासीन कर दो तभी इनका संहार सम्भव है। यचिमकाएँ देख कर यक्ष्मा पहचानना अर्थात् पका आम देखकर पहचानना कि आम का फल लगना प्रारम्भ हो गया। अंगरेजी में ट्युबरक्युलोसिस शब्द का निर्माण इसी मूर्खता का द्योतक है। यक्ष्मा में ट्युबरकिल की उत्पत्ति तो बहुत बाद में होती है इसे यदि थायसिस (क्षय) या कन्जम्पशन (शोष) ही कहना प्रारम्भ किया जाय तो कहीं अधिक युक्तियुक्त होगा। इसी के सम्बन्ध में अश्कौफ के निम्न शब्द उल्लेख्य हैं: It is about time that we should again employ the name phthisis for this disease entity. Then we shall see that tuberculosis is only a special reaction form in the course of phthisis.' यह रोग तीव्र सर्वाङ्गीण रूप में भी फैल सकता है और अतीव विषरक्तता भी उत्पन्न कर सकता है । कभी कभी यह जीर्ण स्थानिक विनाशक स्वरूप में भी हो सकता है तब यह विशिष्ट अंगों में ही सीमित रहता है या एक के बाद दूसरा इस प्रकार कई अंगों को प्रभावित किए रहता है। इस रोग के प्रारम्भिक विक्षत सदैव फुफ्फुसों में या लसीक ग्रन्थियों में बनते हैं तथा वृक्क, मस्तिष्कछद, लसाभ उतियाँ, महास्रोत, वृषण ग्रन्थियाँ, अस्थियाँ, सन्धियाँ तथा अन्य उतियाँ इससे बाद में गौण रूप में प्रभावित होते हैं। यद्यपि अति प्राचीनकाल से इस रोग का वर्णन चला आता है परन्तु पहले यह राजाओं को होनेवाला रोग था। यक्ष्मा में धातुक्षय विशेष करके देखा जाता है यह सय २ प्रकार से होना सम्भव है एक को अनुलोमक्षय और दूसरे को प्रतिलोमक्षय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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