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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ विकृतिविज्ञान इन रोगों में व्रणशोथ, यक्ष्मा, फिरंग, अर्बुद तथा कवक मुख्यतः उल्लेख्य हैं इनका पूर्णतः अध्ययन हो जाने पर आधुनिक विकृतिविज्ञान शास्त्र का पर्याप्त एवं आवश्यक ज्ञान हो जाता है । इसी दृष्टिकोण को लेकर हमने इन विषयों को पृथक्-पृथक् अध्याय में प्रगट करना निश्चय किया है। विश्वास है कि पाठक वृन्द इस दृष्टि को समझ कर ही इस ग्रन्थ का अवलोकन करेंगे । यच्मा और फिरंग ऐसे रोग हैं जो व्रणशोथात्मक स्थितियाँ उत्पन्न करके कणन ऊति के निर्माण को प्रोत्साहित करते हैं और वे विशिष्ट कार्बुद ( specific granuloma ) कहलाते हैं और क्योंकि हम अभी-अभी व्रणशोथ एवं कणन ऊति का विचार कर चुके हैं अतः कणन ऊति द्वारा उत्पन्न और व्रणशोथ द्वारा पोषित नववृद्धियों का विचार करना ही इस समय युक्तियुक्त है अतः हमने यक्ष्मा के इस प्रकरण को प्रारम्भ किया है । यहाँ हम आधुनिक विचारों का ही समावेश कर रहे हैं और आयुर्वेदीय सम्प्राप्ति का ऊहापोह यथास्थान अपने अविकल रूप में दिया जावेगा । इतस्ततः किसी आधुनिक वाद की पुष्टि के लिए आवश्यक सूत्र का उल्लेख यथावत् चलता रहेगा । यक्ष्मा एक विशिष्ट तथा औपसर्गिक रोग है इसकी उत्पत्ति का प्रधान हेतु यक्ष्मा दण्डाणु ( Bacillus tuberculosis ) है जिसे माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस ( यक्ष्म कवक वेत्राणु ) या कौक्सबैसिलस ( कौक दण्डाणु ) कहा जाता है । इसे कौक ने सन् १८८२ ई० में खोज निकाला था। आयुर्वेद इसके प्रधान चार कारण मानता है— साहसं वेगसंरोधः शुक्रौजः स्नेहसंक्षयः । अन्नपानविधित्यागश्चत्वारस्तस्य हेतवः ॥ ( अ. हृ. ) यमदण्डाणु और उसका विष ये दोनों मिलकर प्राणियों को यक्ष्माग्रस्त कर देते हैं। हो सकता है कि अधिक कायेन वाचा अथवा बल प्रयुक्त करने से ( साहसात् ), वातविण्मूत्रादीनामुन्मुखीभूतानां वेगानां धारण करने से ( वेगरोधात् ), शुक्रं च ओजश्च स्नेहश्च तेषां विनाश करने से ( क्षयात्) तथा अन्नपानयोर्यथाशास्त्रं यो विधिः उसका त्याग करने अन्यथा सेवन करने अन्यथा अव्यवहार करने से ( विषमाशनात् ) शारीरिक बल कम हो जाता है और यह यचमादण्डाणु प्राणी के शरीर में अपना आसन जमा कर बैठ जाता हो । इस रोग का मुख्य लक्षण यदिमका ( tubercle ) की उत्पत्ति है | यह क्या है इसका वर्णन करते हुए स्व० डॉ० धीरेन्द्र नाथ बनर्जी लिखते हैं: ‘A tubercle is an inflammatory, more or less circumscribed nodule which undergoes degeneration in the form of cas eation, necrosis and ulceration or heals with the formation of fibrous tissue and subsequent calcification' अर्थात् यचिमका एक त्रणशोथात्मक अल्पाधिक परिलिखित गाँठ होती है जिसका विहास किलाटीयन, ऊतिमृत्यु तथा व्रणन द्वारा हो जाता है या वह तान्तव ऊति तथा उत्तरवर्ती चूर्णियन का निर्माण करती हुई रोपित हो जाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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