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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४७६ विकृतिविज्ञान होने लगती है कोशाओं के अन्दर यहाँ भी कीटाणु बहुत बड़ी संख्या में भरे पड़े रहते हैं । यदि रोग सौम्य हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा लसीकाग्रन्थियाँ खूब फूलती है। विशेषकर आन्त्रनिबन्धनी ( mesentery ) की लसग्रन्थियाँ खूब बढ़ती है। उनमें भी कीटाणु पाये जाते हैं पर उनकी संख्या कम होती है । लसीकाग्रन्थियों के केन्द्रभाग में ऊतिनाश ( central necrosis ) पाया जाता है । लसग्रन्थियों के अतिरिक्त गले में, क्षुद्रान्त्र में तथा अन्यत्र भी जो लसाभ ऊति होती है उसकी अभिवृद्धि होती है तथा उसमें कीटाणुओं की उपस्थिति भी देखी जा सकती है । इसी कारण गले और नासा के स्रावों तथा मल तक में कालाजार के कीटाणुओं की उपस्थिति की खोज की जा सकती है । www.kobatirth.org रोगी का हृदय भी विस्फारित हो जाता है तथा वह कुछ लथ ( flabby ) भी पाया जाता है | स्थूलान्त्र में व्रण तथा अतीसार जैसे लक्षण भी देखे जा सकते हैं । इनके अतिरिक्त वृक्क, अधिवृक्क, फुफ्फुस, अग्न्याशयादि अंगों के अन्दर भी विकृति आ जाती है । मस्तिष्कसंस्थान इस रोग से अछूता रहता है । पर जीर्ण रोगी की त्वचा में रोगोत्तर काल में कालज्वरोत्तर लीशमनीयता पाई जा सकती है । । कालाजार में रक्तगत विकृति के सम्बन्ध में हम डा० घाणेकर की पुस्तिका औपसर्गिक रोग से कुछ तथ्य संग्रह करके निम्न पंक्तियों में रख देते हैं : --- १ - रोग के उत्तर काल में रक्त के लाल कणों की कमी २५ लाख तक हो जाती है ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उक्त कमीका कारण अस्थिमज्जागत रुधिरोत्स्फोटक उति ( erythroblastic tissue ) का नाश होता है । "9 २ -- लालकणों की कमी के साथ शोणवर्तुलि ( haemoglobin ) की कमी होने से रंगदेशना ( colour index ) हो जाती है । ३---- वेतकर्णो की संख्या का घटना — श्वेतकायाण्वपकर्ष का क्रम निम्न चलता है( अ ) ९५ प्रतिशत रोगियों में – ३००० से कम -२००० "" (आ) ०३ (इ) ४२ १००० "" ४ --- स्वस्थावस्था में श्वेतकायाणु एक होने पर ७५० लालकण पाये जाते हैं । कालाजार में यही अनुपात १ : १५००-२००० तक चला जाता है । १३- कालाजार में बह्वाकारी ( polymorph ) घटते हैं लसकायाणु तथा एक कायाणु बढ़ते हैं तथा उपसिप्रिय दिखलाई नहीं देते ! 39 " "" ६—रक्तचक्रिकापकर्ष ( thrombocytopenia ) भी होता है जिसे धनात्रarraoर्ष कहते हैं । ७-रक्त के रासायनिक संघटन में भो बड़े परिवर्तन देखने में आते हैं यथा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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