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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४३४ विकृतिविज्ञान (४) श्वसनं लोचने भुग्ने श्रुतिशून्यं ज्वराधिकम् । मोहः प्रलापनं कम्पो भ्रमो निद्रापि लक्षणैः । ज्ञातव्य भुग्ननेत्रोऽयं सन्निपातः सुदारुणः ॥ ( नि. वा. ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५) भुग्नं विलोचनद्वन्द्वं बाष्पं स्रवति सन्ततम् । निरीक्षणेन रहितं प्रलापभ्रमकम्पनम् । ज्ञातव्यो भुग्ननेत्रोऽयं सन्निपातः सुदारुणः ॥ ( चि. ) (६) स्मृतिशून्यता ज्वरविवृद्धिरतिश्वसनं विभुग्नतरले नयने । भ्रमकम्पनप्रलपनानि मृतिः कथितो विभुग्ननयनो मुनिभिः ॥ ( वै. वि . ) नेत्र सन्निपात का प्रमुख लक्षण नेत्रों की भुग्नता, टेरता ( strabismus ) या वक्रता है। रोगी की पुतलियाँ तिरछी चढ़ जाती हैं। ज्वर बहुत तेज हो जाता है । उसी के कारण मध्यमस्तिष्क में विकृति आने से यह लक्षण बना करता है । इसके अतिरिक्त रोगी की श्रवणशक्ति भी नष्ट हो जाती है। श्वास की गति बढ़ जाती है। रोगी प्रलाप करता रहता है तन्द्रा या मोह उसे होता ही है वह किसी को पहचान भी नहीं पाता । हाथ पैरों में कम्प स्पष्टतः प्रकट होता है । भ्रम, शोक, बल की कमी, कास, मद, निद्रा आदि ऐसे लक्षण हैं जो कहीं प्रकट होते और कहीं नहीं भी मिलते हैं । अभिन्यास सन्निपात (१) दोषास्तीव्रतरा भवन्ति बलिनः सर्वेऽपि यत्र ज्वरे, मोहोऽतीव विचेष्टता विकलता श्वासो भृशं मूकता । दाहचिक्कणमानञ्च दहनो मन्दो बलस्य क्षयः सोऽभिन्यास इति प्रकीर्तित इह प्राज्ञैर्भिषग्भिः पुरा ॥ (२) करपादतले दाहः प्रज्ञाहानिश्च जायते । जानीयात्तमभिन्यासमायुर्वेदविशारदः ॥ ( मा. ) (३) दोषत्रयस्निग्धमुखत्वनिद्रावैकल्य निश्चेष्टनकष्टवाचः । बलप्रणाशः श्वसनादिनिग्रहोऽभिन्यास उक्तो ननु मृत्युकल्पः ॥ ( आ. ) (४) त्रिदोषं च मुखं स्निग्धं निद्रावैकल्यकम्पनम् । निश्चेष्टनमतिश्वासमन्दाग्निबलहानयः । मृत्युतुल्यं ह्यभिन्यासं सन्निपातं सुलक्षयेत् ॥ ( नि. ना. ) (५) दोषत्रयं ज्वरश्वासस्निग्धास्यमतिनिद्रता । अङ्गवैकल्यतापश्च बलहानिस्तृषा जडः ॥ अत्युत्कटः सन्निपातो ह्यभिन्यासः सुदारुणः ॥ ( चि. ) (६) निद्रात्ययः श्वासचलप्रकोपानिश्चेतनो नष्टवपुर्गतिश्च । ब्रूते हि कष्टं विकलत्वमङ्गेऽभिन्यास उक्तः स तु मृत्युतुल्य: (वै. वि . ) मृत्युतुल्य इस सन्निपात में तीनों दोष अपनी उत्कटावस्था में होते हैं जिसके कारण अत्यधिक निद्रा की अर्थात् बेहोशी की स्थिति में रोगी देखा जाता है । वह नष्ट चेष्टारहित जैसा पड़ा रहता है, श्वास की गति बहुत तीव्र होती है ऐसा लगता है मानो रोगी का अङ्ग अङ्ग दुख रहा हो और वह बहुत बड़ी बेचैनी का अनुभव कर 1 रहा हो । बोल पाता नहीं ज्वर अत्यधिक उम्र रूप में होता है, बल का इतना अधिक क्षय हो जाता है कि उसे बोलने की सामर्थ्य नहीं रह पाती । किसी किसी को कम्प, मन्दाग्नि, तृषा और जडता भी मिल सकती है । जिas सन्निपात ( १ ) त्रिदोषजनिते ज्वरे भवति यत्र जिह्वा भृशं वृता कठिनकण्टकेस्तदनु निर्भरं मूकता । श्रुतिक्षतिबलक्षतिश्वसनकाससन्तप्तयः पुरातनभिषग्वरास्तमिह जिह्नकं चक्षते || ( भा. प्र. ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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