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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४३३ पीडित व्यक्ति के लक्षणों के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों में मतैक्य अधिकांश देखने में आता था। ___रक्तष्ठीवन ( Haemoptysis) इस रोग का प्रमुख लक्षण है । रक्त का स्राव मुख के द्वारा होता है मुख में रक्त फुफ्फुस तथा उदर दोनों में से किसी भी स्थल से आसकता है पर अधिक सम्भावना जैसा कि अन्य लक्षणों के देखने से प्रतीत होती है वह है फुफ्फुस की। ___रक्तष्ठीवन के साथ ही साथ लाल गहरे या श्यामता लिए पतले मण्डलों की उत्पत्ति त्वचा में होना एक महत्त्व का लक्षण है। चमड़ी पर इतस्ततः ये पाये जाते हैं। तीसरा लक्षण जिह्वा का फटी हुई होना तथा उससे रक्त का चूना अथवा उसका काला लाल वर्ण हो जाना तथा उस पर कॉटों के जमने का है। हिचकी एक ऐसा लक्षण है जिसे प्रत्येक निदानवेत्ता ने इस रोग में बतलाना अपना कर्त्तव्य माना है। भ्रम या चक्कर आना तथा तृष्णा अर्थात् प्यास का लगना ये दो ऐसे लक्षण हैं जो रक्तस्राव या रक्तष्ठीवन के परिणामस्वरूप देखे जाते हैं। ज्यों ज्यो. शरीर में रक्त कम होता चला जाता है सिर घूमने लगता है और प्यास बढ़ने लग जाती है। विसंज्ञता या संज्ञानाश भी रक्तष्ठीवन प्राचुर्य के परिणाम का मूर्तरूप होता है। श्वास की क्रिया की वृद्धि होकर जल्दी जल्दी श्वास का चलना भी रक्तस्राव का ही एक परिणाम हुआ करता है। साथ ही उदर में भी विकार का प्रकोप अधिक रहता है। इसका प्रमाण वमन, अतिसार, अरुचि, तथा आध्मान नामक लक्षणों के कारण मिल जाता है। शरीर में शूल रहना, आँखों में जलन पड़ना, शरीर का पतित हो जाना, दाह का रहना, मूर्छा या मोह की अवस्था का पाया जाना, ये सब लक्षण भी इस रोग में कम या अधिक रूप में अवश्य देखने में आते हैं। वैद्यविनोद ने मद का भी उल्लेख किया है। __ रक्तष्ठीवन का निरन्तर होना और उसके परिणामस्वरूप विभिन्न गम्भीर लक्षणों का उत्पन्न हो जाना और उसके कारण रोगी की यथासमय तक पहुँचने की स्थिति आजाना अस्वाभाविक घटनाएँ नहीं हैं। भुग्ननेत्र सन्निपात (१) भृशं नयनवक्रता श्वसनकासतन्द्रा भृशं प्रलापभदवेपथुश्रवणहानिमोहास्तथा। पुरो निखिलदोषजे भवति यत्र लिंग ज्वरे पुरातनचिकित्सकैः स इह भुग्ननेत्रो मतः ॥( भा.) (२) अक्षिभङ्गः श्रुतेर्भङ्गः प्रलापश्वासविभ्रमाः । भुग्नदृष्टिं विजानीयादसाध्यं कण्ठशोषवत् ॥ (मा.) (३) ज्वरबलापचयश्रुतिशून्यता श्वसनभग्नविलोचनमोहिताः। __ प्रलपनभ्रमकम्पनशोकवान् त्यजति जीवितमाशु स भुग्नदृक् ॥ ( आ.) ३७, ३८ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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