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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान कि जिसमें दो दोषों के लक्षण लक्षित होते हैं उसे द्वन्द्वज ज्वर कहा जाता है। दोर्षों के प्रकोप और उपशमन के अनुसार शीत और दाह के परिवर्तन ज्वर के आदि और अन्त में होते हैं अर्थात् यदि ज्वर के आदि में वात का कोप हो तो शीत लगेगा और पित्त का कोप हो तो दाहाधिक्य मिलेगा । यही अन्त के लिए भी समझ लें। अब हम आयुर्वेद में सर्वाधिक महत्त्व के प्रसङ्ग पर अपनी लेखनी उठाते हैं-- सन्निपातज्वर सन्निपात ज्वर के सम्बन्ध में आचार्यों ने अपने अपने विचार बहुत भिन्नता के साथ प्रकट किए हैं अतः उनका निरूपण पूर्वपद्धति के अनुसार नहीं किया जा सकेगा। इसके लिए हम प्रत्येक आचार्य के द्वारा व्यक्त विचारों को पहले एक स्थान पर रख कर फिर उसका सामूहिक विचार व्यक्त करेंगे। इससे सन्निपात निदान की दुरुहता बहुत कुछ सरल की जा सकेगी। चरकसंहिता में सन्निपातजज्वर के १२ भेदों का वर्णन किया गया है तत्पश्चात् विकृतिविषमसमवायारब्ध सन्निपातज्वर के लक्षणों का वर्णन किया गया है इसके बाद सन्निपातज्वर के असाध्य लक्षण गिना दिये गये हैं(१) भ्रमः पिपासा दाहश्च गौरवं शिरसोऽतिरुक् । वातपित्तोल्बणे विद्याल्लिङ्गं मन्दकफे ज्वरे ।। (२) शैत्यं कासोऽरुचिस्तन्द्रा पिपासा दाहरुग्व्यथा । ___ वातश्लेष्मोल्बणे व्याधौ लिङ्गं पित्तावरे विदुः॥ (३) छर्दिः शैत्यं मुहर्दाहस्तृष्णा मोहोऽस्थिवेदना। मन्दवाते व्यवस्यन्ते लिङ्ग पित्तकफोल्बणे ।। (४) सन्ध्यस्थिशिरसः शूलं प्रलापो गौरवं भ्रमः । वातोल्बणे स्यायनुगे तृष्णा कण्ठास्यशोषता ॥ (५) रक्तविण्मूत्रता दाहः स्वेदस्तृड्बलसंक्षयः। मूर्छा चेति त्रिदोषे स्याल्लिङ्ग पित्ते गरीयसी ।। (६) आलस्यारुचिहृल्लासवमिदाहतृषाभ्रमैः। कफोल्बणं सन्निपातं तन्द्राकासेन चादिशेत् ॥ (७) प्रतिश्याच्छदिरालस्यं तन्द्रारुच्यग्निमार्दवम् । हीनवाते पित्तमध्ये लिङ्गं श्लेष्माधिके मतम् ।। (८) हारिद्रमूत्रनेत्रत्वं दाहस्तृष्णाभ्रमोऽरुचिः। हीनवाते मध्यकफे लिङ्गं पित्ताधिके मतम् ।। (९) शिरोरुग्वेपथुः श्वासः प्रलापच्छरोचकौ । हीनपित्ते मध्यकफे लिङ्गं वाताधिके मतम् ।। (१०) शीतको गौरवं तन्द्रा प्रलापोऽस्थिशिरोऽतिरुक हीनपित्ते वातमध्ये लिङ्गं श्लेष्माधिके मतम् ॥ (११) श्वासः कासः प्रतिश्यायो मुखशोषोऽतिपावरुक् । कफहीने पित्तमध्ये लिङ्ग वाताधिके मतम् ।। (१२) पर्वभेदोऽग्निमान्धं च तृष्णादाहोऽरुचिभ्रंमः। कफहीने वातमध्ये लिङ्गं पित्ताधिके विदुः॥ विकृतिविषमसमवाय सन्निपातलक्षणक्षणे दाहः क्षणे शीतमस्थिसन्धिशिरोरुजा । सास्रावे कलुषे रक्ते निर्भुग्ने चाऽपि लोचने । सस्वनौ सरुजौ कौँ कण्ठःशूकैरिवावृतः । तन्द्रामोहः प्रलापश्च कासः श्वासोऽरुचिभ्रमः ।। परिदग्धा खरस्पर्शा जिह्वा स्रस्ताङ्गता परा। ष्ठीवनं रक्तपित्तस्य कफेनोन्मिश्रितस्य च ॥ शिरसो लोठनं तृष्णा निद्रानाशो हृदि व्यथा । स्वेदमूत्रपुरीषाणां चिरादर्शनमल्पशः ।। कृशत्वं नातिगात्राणां सततं कण्ठकूजनम् । कोठानां श्यावरक्तानां मण्डलानाञ्च दर्शनम् ॥ मूकत्वं स्रोतसां पाको गुरुत्वमुदरस्य च । चिरात्पाकश्च दोषाणां सन्निपातज्वराकृतिः ।। सन्निपातज्वर के १३ प्रकारों के सम्बन्ध में निम्न भावप्रकाशोक्त सूत्र अच्छा मार्ग दर्शन करता है For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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