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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४१५ अब हम दोषों की दृष्टि से इन लक्षणों को उपस्थित करते हैं श्लैष्मिकलक्षण पैत्तिकलक्षण पित्तश्लैष्मिकलक्षण مه به शीत स्तम्भ स्वेदोस्तम्भ xxx س + ه م अरुचि م م तिक्तास्यता م م लिप्तास्यता तन्द्रा x x x x x x x x x x HR x x xx अगसाद हृल्लास, वमि १४ गौरव सन्धिशिरोरुक १५ निद्रा, प्रसेक x सन्ताप, अरति, पर्वभेद द्वन्द्वज ज्वरों के सम्बन्ध में अरुणदत्त ने एक प्रश्न उठाया है कि-अथ द्विदोषजानां ज्वराणां किमागमापगमवैषम्यादीनां क्रमेणोत्पत्तिः ? द्विदोषज ज्वरों के आने या जाने में दोष वैषम्यादि की उत्पत्ति का क्रम क्या रहता है ? वे दोष सम्पूर्ण शरीर में एक साथ व्याप्त होते हैं या विभिन्न कालों में ? उत्तर देते हुए वही कहता है कि द्वन्द्वज ज्वर संसर्गज होने के कारण दोनों ही पक्षसम्भव हैं। किन्तु दोनों पक्षों के विरोधी होने पर युगपत् सम्भव नहीं हो सकता और आगे उसी के शब्दों में 'यदि संसर्गजे ज्वरे बलवान् वायुः स्यात् तदा आगमापगमवैषम्यादिना क्रमेण, अथ पित्तस्य बलीयस्त्वं तदा युगपत्सर्वशरीरव्याप्तिक्रमेण ज्वरो भवति। समौ यदा द्वावपि भवतः, तदाऽपि यस्य देशकालादिना बललाभस्तदा तस्यै वोत्पत्तिक्रमेण ज्वरो भवति । सन्निपाते तु युगपदेव शरीरव्याप्तिः।' अर्थात् जब वायु बली होता है तो आगमापगम की विषमता के साथ ज्वर होता है, जब पित्त बलवान होता है तब उसके कारण शरीर में एक साथ ही ज्वरोत्पत्ति हो जाती है पर जब वे दोनों सम हों तो जिस दोष के अनुकूल देश वा काल अथवा दो। हों उसी के अनुसार ज्वरोत्पत्ति हुआ करती है । सन्निपात में तीनों दोषों के द्वारा एक साथ ज्वरोत्पत्ति होती है । ज्वर के आगम और अपगम में शीत अथवा दाह या अन्य लक्षणों का क्या क्रम रहता है इस पर उग्रादित्याचार्य का निम्न सूत्र महत्त्वपूर्ण है दोषद्वयेरितसुलक्षणलक्षितं तद्दोषद्वयोद्भवमिति ज्वरमाहुरत्र । दोपप्रकोपशमनादिह शीतदाहावाद्यं तयोविनिमयेन भविष्यतस्तौ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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